बुधवार, 27 अगस्त 2025

इति शिवहरे

1. हँस रहे दुख में अधर


हँस रहे दुख में अधर, तो
अश्रु की अवहेलना है,
आह! कैसी वेदना है।

कल्पना की कल्प कंचन कामिनी की कह कथाएँ,
नित्य ऋषियों की तपस्या भंग करती अप्सराएँ।
मौन की अभिव्यंजना, अवसादमय मन कर रही है,
मोह-मिथ्या की मुखरता बस कलुषता भर रही है।

द्वंद्व के अंतःकरण में
लुप्त होती चेतना है।
आह! कैसी वेदना है।

वेद मंत्रों का अनाविल स्वर सकल में घोल देगी?
आचरण की सभ्यता क्या वर्जनाएँ खोल देगी?
प्रीत के प्रतिकूल पथ पर, फिर चलेंगे, फिर छलेगें।
स्वर्ण मृग फिर से किसी, अलगाव का कारण बनेंगे।

मूँद कर अपने नयन अब
मीन के दृग भेदना है।
आह! कैसी वेदना है।

त्यता सद्भावनाओं, का सतत अतिरेक होगा,
या कि निर्मल नैन जल से, नेह का अभिषेक होगा।
मुस्कुराकर रो पडो़गे, यदि सुनी मेरी व्यथाएँ,
यातनाएँ जी रहीं हैं, मर रहीं संवेदनाएँ।

बैठ कर उत्तुंग पर, अब
मुक्ति की अन्वेषणा है
आह! कैसी वेदना है।
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2. तुम बढ़ो आगे, जिसे चाहो


तुम बढ़ो आगे, जिसे चाहो,
करो अब अनुगमन है।
यह मिलन, अंतिम मिलन है!

किस तरह की भेंट यह, अलगाव देकर जा रही है!
यह तुम्हारी गति हमें, ठहराव देकर जा रही है।
तुम न लाना आँख में पानी, हमारा मन जलेगा।
टूटता अनुबंध है, अनुराग कुछ दिन तो छलेगा।

स्वप्न की मृत देह पर से,
जागरण का अवतरण है।
यह मिलन अंतिम मिलन है!

जब कि पहनाने अँगूठी हाथ माँगोगे कभी तुम।
या रजत नूपुर किसी के पाँव बाँधोगे कभी तुम।
याद आएगा 'कुशा' की मुद्रिका भर चाहती थी।
एक पगली 'दूब' की पायल पहनकर नाचती थी।

एक मन से ही किसी का,
निर्गमन है, आगमन है।
यह मिलन अंतिम मिलन है।

क्या हुआ जो दे न पाए प्रेम, ये ही सोच लेंगे।
वृक्ष सब देते न छाया, और कुछ तो धूप देंगे।
प्रार्थना कुछ कर न पाईं, याचना कर क्या मिलेगा?
लो विदाई हर्षमय तुम, दुख मनाकर क्या मिलेगा?

सोचना क्या, यह बिछड़ना,
और मिलना तो चलन है।
यह मिलन अंतिम मिलन है!
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3. श्रांति रण में


श्रांति रण में धैर्य के धनु-बाण
त्यागोगे धनंजय!
हार मानोगे धनंजय?

वे भला भयभीत जिनके सामने हर भय झुका है।
वे जिन्होंने 'भाग्य' के आगे सदा 'भुजबल' रखा है।
देख जिनका शौर्य सब व्यवधान भी दम तोड़ते हों।
जो तिमिर में 'दीप' धरकर 'भानु' का भ्रम तोड़ते हों।

आज! हो निष्क्रिय स्वयं पर,
प्रश्न दागोगे धनंजय?
हार मानोगे धनंजय?

खिन्नता के सिंधु में मन व्यर्थ ही इतना प्लवित है!
'आधि' में रहकर बढ़ावा 'व्याधि' को देना उचित है?
आचरण की अग्नि में तप दिव्यता चुनने लगेंगे!
भीरु बनकर या सबल असमर्थता चुनने लगेंगे?

बाद क्या अनुयायियों को,
मुख दिखाओगे धनंजय?
हार मानोगे धनंजय?

हे परंतप! जाग निज सामर्थ्य को पहचान लेना।
संयमित कर इंद्रियों को दास अपना मान लेना।
योग, ग्रह-नक्षत्र को भी मुट्ठियों में बाँध लेना।
काल रूपी विहग के 'पर' पर निशाना साध लेना।

जिस समय धर्मार्थ प्रत्यंचा,
चढ़ाओगे धनंजय,
जीत जाओगे धनंजय!
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4. ब्याह कर मुझको, दिया


ब्याह कर मुझको, दिया
सुंदर, नवल परिवेश बाबा!
जा रही परदेश बाबा!

द्वार-तक कर दो विदा तुम, अंक में अपने उठाए।
ये अनागत-काल में अधिकार मिल पाए न पाए!
है बहुत संभव कि अब व्यवहार में अंतर रहेगा।
मंद-गति, संकोचमय सिमटा हुआ सा स्वर रहेगा।

यह नियति है, कष्ट का,
लाना न कोई लेश बाबा।
जा रही परदेश बाबा!

दूर क्या, नजदीक जाने से अकेले, रोकते थे!
दृष्टि से ओझल हुई तो घर-भरे को टोकते थे।
किस तरह,पाषाण हिय कर, हो खड़े प्रणिपात में तुम?
सर्वदा को सौंपते, मुझको अपरिचित हाथ में तुम।

किसलिए ये रख रहे हो,
आज दो-दो वेश बाबा?
जा रही परदेश बाबा!

हो नहीं, कृशकाय चिंता में, स्वयं का ध्यान रखना!
हाँ! रहूँगी मैं सुखी-सानंद तुम निश्चिंत रहना।
परिजनों के प्रति, मृदुलता, शिष्टता, से ही रहूँगी।
अब न झगडूँगी किसी से, नेह में सब बाँध लूँगी।

भेजते रहना कुशल-मंगल,
सुखद-संदेश बाबा!
जा रही परदेश बाबा!
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5. ओ युवाओं!


ओ युवाओं! प्राण अक्षय,मर्त्य मृत्युंजय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!

ज़िंदगी मृदु-भावनाओं में सहज निष्णात होना।
प्रेम की आराधना के प्रति विनय-प्रणिपात होना।
ये मुखर आनंदमय अनुरक्ति की उत्सर्जना है।
मौन यदि अन्याय पर,असुरारि-सुर की भर्त्सना है।
वह नहीं जीवन कि कुंदन-आँच से परिचय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!

हर्ष होना चाहिए अवसाद में क्यों हो रहे हो?
साधना के शुभ-समय में भोग में यदि खो रहे हो।
मोह-माया-मोहिनी की रीति आकर्षित करेंगी।
तामसी दुष्वृत्तियाँ हैं सर्वदा विचलित करेंगी।
किंतु इनके अनुसरण की यह यथोचित-वय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!

छोड़ जठरानल अभी हे शूर दावानल बुझा लो!
पुण्य-पथ पर पग बढ़ाओ हाथ गंगाजल उठा लो।
खोल लो अब चक्षु अपने बाहुओं में जोश भर लो।
घृणित-कलुषित कृत्य के अवितत समर उद्घोष कर लो।
फिर सुनिश्चित है विजय संघर्ष में, संशय नहीं है।
ज़िंदगी अभिनय नहीं है!
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इति शिवहरे 















इति शिवहरे का जन्म 2002 औरैया, उत्तर प्रदेश में हुआ। कई पत्र-पत्रिकाओं में इनकी रचनाएँ प्रमुखता से प्रकाशित हो चुकी हैं, वहीं कई मंचों और चैनलों पर भी उन्होंने काव्य पाठ किया। उनकी कुछ रचनाओं को संगीतबद्ध भी किया जा चुका है।

बुधवार, 20 अगस्त 2025

पराग पावन

 1.पंजे भर ज़मीन 


इस धरती पर बम फोड़ने की जगह है
बलात्कार करने की जगह है
दंगों के लिए जगह है
ईश्वर और अल्लाह के पसरने की भी जगह है
मगर तुमसे मुलाक़ात के लिए
पंजे भर ज़मीन नहीं है इस धरती के पास

जब भी मैं तुमसे मिलने आता हूँ
भईया की दहेजुआ बाइक लेकर
सभ्यताएँ उखाड़ ले जाती हैं उसका
स्पार्क प्लग

संस्कृतियाँ पंचर कर जाती हैं उसके टायर
धर्म फोड़ जाता है उसकी हेडलाइट
वेद की ऋचाएँ मुख़बिरी कर देती हैं
तुम्हारे गाँव में
और लाल मिरजई बाँधे रामायण तलब करता है
मुझे इतिहास की अदालत में

मैं चीख़ना चाहता हूँ कि
देवताओं को लाया जाए मेरे मुक़ाबिल
और पूछा जाए कि कहाँ गई वह ज़मीन
जिस पर दो जोड़ी पैर टिका सकते थे
अपना क़स्बाई प्यार

मैं चीख़ना चाहता हूँ कि
धर्मग्रंथों को लाया जाए मेरे मुक़ाबिल
और पूछा जाए कि कहाँ गए वे पन्ने
जिन पर दर्ज किया जा सकता था प्रेम का ककहरा

मैं चीख़ना चाहता हूँ
कि लथेड़ते हुए खींचकर लाया जाए
पीर और पुरोहित को और पूछा जाए
कि क्या हुआ उन सूक्तियों का
जो दो दिलों के महकते भाप से उपजी थीं

मेरे बरअक्स तलब किया जाना चाहिए इन सभी को
और तजवीज़ से पहले बहसें देवताओं पर होनी चाहिए
पीर और पुरोहित पर होनी चाहिए
आप देखेंगें कि देवता बहस पसंद नहीं करते

मैंने तो फ़ोन पर कह दिया है अपनी प्रेमिका से
कि तुम चाँद पर सूत कातती बुढ़िया बन जाओ
और मैं अपनी लोक-कथाओं का कोई बूढ़ा बन जाता हूँ

सदियों पार जब बम और बलात्कार से
बच जाएगी पीढ़ा भर मुक़द्दस ज़मीन
तब तुम उतर आना चाँद से
मैं निकल आऊँगा कथाओं से

तब झूमकर भेंटना मुझे इस तरह कि
‘मा निषाद’ की करकन लिए हुए
सिरज उठे कोई वाल्मीकि का वंशज

अभी तो इस धरती पर बम फोड़ने की जगह है
दंगों के लिए जगह है
ईश्वर के पसरने की भी जगह है
पर तुमसे मुलाक़ात के लिए
पंजे भर ज़मीन नहीं है

इस धरती के पास।
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2. जंगल में मोर नाचा किसने देखा


किसी ने नहीं देखा जंगल में मोर को नाचते हुए
तो उसका नृत्य अप्रामाणिक नहीं हो जाता

उसकी कला मात्र इसलिए संदिग्ध नहीं हो जाती
कि उसने प्रदर्शन नहीं किया
आपकी अनुमति और मशविरे की प्रतीक्षा किए बग़ैर
वह नाच उठा

पुरस्कृत होने की भ्रष्टाकांक्षा
आलोचित होने के भय
या उपेक्षित होने के दुख से बहुत दूर
मोर सिर्फ़ इसलिए नाचा
कि उसकी आत्मा का आदिम उत्सव
उसके पैरों को बाँध नहीं पा रहा  था

एक भीतरी हलचल ने स्थिर न रहने दिया
नाचना और इसलिए कला भी
सबसे पहले इस दुनिया की अपूर्णता के विरुद्ध
एक ऐलान है

तो कहिए कि मोर अपनी अपूर्ण दुनिया के लिए नाचा
आपके विशिष्टताबोध से पैदा
वैधता प्रदान करने की ऐतिहासिक आदतों
और स्वतःधारित अधिकारों के ख़िलाफ़
मोर शायद जंगल के लिए नाचा

युग बीत जाते हैं
आप न मुहावरे बदलते हैं न उनका आशय
तो एक दिन जंगल, मोर और नृत्य
एक व्यंग्यात्मक मुस्कान में कहते हुए पाए जाते हैं
कि आपका जानना बाक़ी है

जंगल के बारे में
मोर के बारे में
नृत्य के बारे में।
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3.असली हत्यारे


असली हत्यारे बंदूक़ की असमर्थताओं को जानते हैं
वे पहचानते हैं तलवार की सीमाओं को

असली हत्यारे शब्दों से क़त्ल का काम लेते हैं
असली हत्यारे परिणाम में नहीं प्रक्रिया में शामिल हैं

वे मरघट के मुहाने पर संभोग के गीत बेच रहे हैं
भीषण बारिश के मौसम में
छतरियों को बदनाम कर रहे हैं

असली हत्यारे महफ़िल के केंद्र में बैठे हुए
महफ़िल के केंद्र को गाली दे रहे हैं 
कि महफ़िल का केंद्र सलामत रहे 
उनकी परंपरा के लिए

चाक़ू की निंदा करने का काम
और कच्चे लोहे की दुकान खोलने का काम
वे समान भोली मुस्कान के साथ करते चले जा रहे हैं

असली हत्यारे आपकी बग़ल में खड़े होकर चाय पी रहे हैं
और चाय के ख़ून से महँगा होने की शिकायत कर रहे हैं

असली हत्यारों की उम्र हज़ार साल है
वे धर्मग्रंथों की ओट में बैठे हैं
वे आत्मा नहीं आत्मा की परिभाषा हैं

हवा उन्हें सुखा नहीं सकती
आग जला नहीं सकती
पानी भिगो नहीं सकता

असली हत्यारे पुस्तकालय जाते हैं
संसद जाते हैं
दोस्त की दावत और टेलीविज़न से लौटते हैं
और सो जाते हैं

असली हत्यारे सोने से पहले याद दिलाना नहीं भूलते
कि सब कुछ अच्छा चल रहा है
असली हत्यारे बाँस बोते हैं
उस बाँस से सबसे उम्दा क़िस्म की लाठी
और सबसे निकृष्ट क़िस्म की बाँसुरी बनाते हैं

असली हत्यारों की शिनाख़्त करनी हो
तो उपसंहार तक कभी मत जाना
असली हत्यारे भूमिका में अपना काम कर चुके होते हैं।
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4. तारों भरे आंचल को परसों तक नहीं जलाना चाहिए


हताशाओं और नाउम्मीदी का 
महासागर हमेशा डरावना होता है
फिर भी हौसले का लंगर 
सफ़र पर निकल ही जाता है

पराजय की शाम तानाशाहों की हँसी जितनी 
घृणित और क़ातिल होती है
पर जज़्बातों के पंछी अपने 
मंगलगीत कभी नहीं भूलते

यह भी समझ ही लेना चाहिए कि
जब तक हमारा घर शून्य नहीं है
या जब तक हम निर्वात के नागरिक नहीं हैं
तब तक 'व्यक्तिगत' हिंदी शब्दकोश का व्यर्थतम शब्द है

कहा नहीं जा सकता कि प्रेमिका की बेवफ़ाई का दुःख
प्रधानमंत्री के नैतिक पतन का दुःख
और पट्टीदार से पुश्तैनी पेड़ के विवाद का दुःख
तत्वतः किस तरह अलग है

दुःख की यही आदत है
वह आने के मामूली अवसर 
को भी गँवाना नहीं जानता
दुःख के आने के हज़ार तर्क हैं
और जीवन उन तर्कों में सर्वश्रेष्ठ है

पर जैसा कि मैंने ऊपर कहा
मुश्किलों के भेड़ियों की गुर्राहट
इंसान के पसीने तक पहुँचने से पहले ही
थक कर सो जाती है

जिस दर पर दुनिया वाले रास्तों को दफ़ना देते हैं
वहीं एक रास्ता पैदा होता है और 
इंसान की अँगुली पकड़कर 
श्मशान से बाहर ले जाता है

कहने वाले कहते हैं 
चाँद पर महज़ मिट्टी है 
और सभी तारों पर कमोबेश ऐसा ही है

पर कुछ लोग अब भी 
तारों से एक आँचल बना रहे हैं
वे लोग उस तारों भरे 
आँचल को परसों तक नहीं जलाएँगे।
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5. आत्महत्याओं का स्थगन 


अपने वक़्त की असहनीय कारगुज़ारियों पर
शिकायतों का पत्थर फेंककर
मृत्यु के निमंत्रण को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता

हम दुनिया को
इतने ख़तरनाक हाथों में नहीं छोड़ सकते
हमें अपनी-अपनी आत्महत्याएँ स्थगित कर देनी चाहिए।
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पराग पावन 
















पराग पावन का जन्म 1993 में उत्तर प्रदेश, जौनपुर में हुआ। वर्तमान समय में पराग पावन जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय से पढ़ाई कर रहे हैं। उनकी कविताएँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और डिजिटल मंचों पर प्रकाशित होती रही हैं।
ईमेल:paragpawan577@gmail.co


 

बुधवार, 13 अगस्त 2025

बलराम कांवट

1. मनहार का फूल

कई बरस पहले
नदी किनारे चलते हुए मैंने तुम्हें एक फूल दिया था
पाँच रंगों वाला
नायाब
चमकीला
बनास की घाटियों में खिला
मनहार का फूल
मैंने कहा भी था
संभालना
यह दिनों दिन धरती से कम होता जा रहा है
आज वह पूरी तरह खत्म हो चुका है मेरी गौरा
उसे ढूँढो !
ढूँढो उसको
कहाँ जाएगा
यहीं कहीं रखा होगा घर में किसी पुस्तक के अंदर छिपाकर तुमने
मत पूछो किस काम आएगा बस ढूँढो
जैसे काली घटाओं,
मेघों, फुहारों और पवन, पुरवाइयों में फिर से जी उठते हैं
आकाश के नीचे सतरंगी सर्प
यह भी कभी
अनुकूल जल और वायु पाकर खोल सकता है अपनी आँख
सात ना सही
आख़िर पाँच रंग तो इसके भी पास हैं
तो रखेंगे इसे सहेजकर हम
जैसे किसान रखते हैं बरसों बरस घड़ों में बीज
और करेंगे प्रतीक्षा
इसके लिए सही हवाओं, सही पानी, सही नक्षत्रों की
अगर लौटकर आए कभी धरती के दिन तो शायद इसमें भी लौटें नए प्राण
फूल से बनेंगे फूल
एक बार फिर जी उठेंगी बनास की घाटियाँ
एक बार फिर
कोई रखेगा किसी के मुलायम हाथों में वही
नायाब चमकीला पचरंगा
मनहार का फूल!
मेरी गौरा उसे ढूँढो!
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2. अगले जन्म में

अंतिम बार
जिस वृक्ष के नीचे रोते हुए तुमने कहा था
कि अब अगले जन्म में मिलेंगे हम
मनुष्य नहीं
पक्षी बनकर आयेंगे
इसी धरती पर
वह वृक्ष मेरे देखते ही देखते सूख गया है
उसे देखकर
जब देखता हूँ धरती पर दूसरे वृक्षों
पक्षियों
नदियों, ऋतुओं, हवाओं को
तो लगता है
सबकुछ इसी जन्म में ख़त्म होता जा रहा है
मेरे देखते ही देखते
जब नदियाँ नहीं होंगी
मीठी ऋतुएँ और शीतल बहती हवाएँ नहीं होंगी
तो कैसे होंगे वृक्ष
जब वृक्ष नहीं होंगे तो कैसे होंगे पक्षी
जब धरती ही
नहीं होगी
तो कैसे मिलेंगे हम
अगले जन्म में!
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3. इस घोर सूखे में


कहते हैं कभी किसी को 
प्यासा नहीं सोना चाहिए
चाहे कितनी ही गहरी
लगी हो आँख
कितना ही आलस भरा हो
तुम्हारी देह में
कितनी ही दूर रखी हो
खाट से मटकी
अगर प्यास बहुत कड़ी है
तो जरूर उठकर जाना ही चाहिए तुम्हें जल के पास
बचपन में जब चाँदनी रातों में लड़ते-झगड़ते 
हम भाई-बहन छत पर सोते थे
सिरहाने जल से भरा लोटा रखते हुए माँ कहती थी
जब हम गहरी नींद और गहरी प्यास में होते हैं
और मन मरोड़े
अलसाए पड़े रहते हैं
तो अंदर ही अंदर इतने छटपटाने लगते हैं प्राण
कि वे देह से उतरकर
बाहर दुनिया में निकल जाते हैं
जल की खोज में
वे गाँव ही का एक क़िस्सा सुनाती थी
कि कैसे एक बुढ़िया के प्राण जल ढूँढते हुए चले गए
पड़ोस के आँगन में
एक खुले
घड़े के अंदर
तभी उस घर में
कोई उठा
और दो घूँट पानी पीकर
घड़े को ढक आया
इस तरह उसी घड़े में अटके रह गए उस बुढ़िया के प्राण
सुबह देखा तो उसकी साँसें बंद पड़ी थी
सबने मृत समझकर
रोते-सुबकते
उसकी काठी बांधी
वे शमशान में
उसे अग्नि देने ही वाले थे
कि वहाँ दूर किसी ने अनजाने ही हटाया घड़े से बर्तन
और इधर
लकड़ियों को हटाती
भड़भड़ाकर
बाहर आई बुढ़िया
इस तरह जलते-जलते वापस लौटे उसकी देह तक प्राण
इस घोर सूखे में
प्यास से अधमरा
बैठा हूँ
किसी रीती पड़ी बावड़ी में पाँव लटकाए
और सोचता हूँ
अब अगर जाना ही पड़ा मेरे प्राणों को
तो कितने रेगिस्तानों और बंजर भूमियों को पार करके जाएँगे वे प्यास बुझाने
और जब तक लौटेंगे
अग्नि देकर
घर लौट चुके होंगे ग्रामीण
देह जलकर
राख हो चुकी होगी!
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4. चंबल की आवाज़

चंबल की घाटियों और खेतों में
अकेले भटकते हुए
बुझी आँखों से देखते हुए
साँझ का सूरज
जब भी धरती के दुःखों के बारे में सोचता हूँ
तो लगता है
कितना जटिल है जीवन
होना कितना असहनीय
जैसे किसी चीज का कोई अर्थ नहीं
जैसे सबकुछ
समझ से कोसों दूर है
ऐसे में कभी-कभी
मन करता है
कि बस! जहाँ जिस खेत में खड़ा हूँ वहीं उतार दूँ अपनी चप्पलें
और चला जाऊँ उस पगडंडी की ओर
जहाँ आगे-पीछे
एक ना एक दिन
सबको जाना है
लेकिन जैसे ही देखता हूँ
इस अनाम दिशा की ओर
सारी दिशाओं से कई आवाज़ें आती हैं बच्चों की तरह दौड़ती हुईं
और उँगली पकड़कर
मुझे थाम लेती हैं
टीलों और खाइयों में खिले
डांग के फूल मुझे मुड़कर देखते हैं
नदी किनारे सरसराते कांस की आवाज़ें
मुझसे कहती हैं
इतना भी मुश्किल नहीं है यह समझना
कि जहाँ-जहाँ पहुँचेगा जल
घास और फूल
खिलते रहेंगे पृथ्वी पर
मुझे उस मल्लाह की आवाज़ रोकती है
जो कहता है
नदी पार करना
इतना भी कठिन नहीं
इन बीहड़ों में
दूर से दिखता मुझे मेरा गाँव रोकता है
गाँव में थान पर बैठा देवता रोकता है
थान पर नाचते मोर
और खेलती गिलहरियाँ
रोकती हैं मुझे
मुझे चिरौल की टहनी पर बैठी
फाख्ता रोकती है
जब उसकी आवाज़ घुलती है पास ही भैंस चराती किसी गूजरी के गीत से
तो उसका गीत मुझे रोकता है
जो कहता है
बहुत सुंदर है पृथ्वी पर फाख्ता की आवाज़
इतना सुख बहुत है
यहाँ ठहरने के लिए
होने के लिए
इतना मतलब बहुत है
मुझे वापस अपनी गोद में बुलाती है
यह कलकल बहती
नदी चंबल
यह कहते हुए कि कहाँ जाएगा मुझे अकेला छोड़कर
मैं तो तब से इस दुनिया से अपशब्द सुन रही हूँ जब मैं एक बूँद हुआ करती थी
कितनी तलवारें
कितनी गोलियाँ
फिर भी जीवन को जल देती हुई
टिकी हुई हूँ
अब भी धरती पर
इस तरह आकाश की ओर जाती उस पगडंडी की ओर जाने से
मुझे धरती पर बहती
एक नदी रोकती है!
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बलराम कांवट














बलराम कावंट का जन्म राजस्थान में गंगापुर सिटी के गाँव टोकसी में हुआ। इन्होंने जयपुर, दिल्ली और पुणे से पढ़ाई पूर्ण की तथा दिल्ली विश्वविद्यालय से विशाल भारद्वाज की फिल्मों पर पीएचडी भी की। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित हैं। इनका उपन्यास 'मोरीला' भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित है।
 

बुधवार, 6 अगस्त 2025

विनोद दुबे

वजूद 

कभी कभार....
मान लिया करो,
अपनी ग़लतियाँ,
बिना अनभिज्ञता या संदेह की ओट में छुपाए,
हँस लिया करो अपनी,
ख़ालिस मूर्खता पर,
कालका मेल से धड़धड़ाकर गुजरते इस जीवन में,
तथ्यों के कई स्टेशन छूट जाएँगे,
कबूतर से डाकिया और फिर इंटरनेट,
ये सारे संदेशवाहक समझ न आयेंगे,
परिवर्तन के इन तूफ़ानों में,
दीवार पर अधचिपके पोस्टर सा वजूद बचाते रहना,
सेल्फ़ी शासित इस संसार में,
अपना शटर वाला कैमरा चलाते रहना,
पाप संगीत के डिस्को लाइटनुमा थिरकन में,
तुम विलंबित लय में सधे मौन का ध्रुपद गाते रहना,
परिवर्तन में पीछे छूट जाने की,
ये ग़लतियाँ रोबिनहुड नुमा की गई परम सात्विक चोरियाँ हैं,
जिनके लिए अपने गाल पर थपकी की सज़ा दे लेना,
किंतु इस परिवर्तन के रफ़्तार में भी,
पीछे छूट जाने की चिंता से परे,
अपने वक्त का घोड़ा बाँधकर,
अपने वजूद की कुण्डी खटखटाकर,
अपने स्वाभिमान वाले कमरे में ,
गाहे-बगाहे विश्राम करते रहना,
कितना भी पिछड़ापन दिखे किंतु,
अपने मन का काम करते रहना,
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2. कहाँ से हो?

शहरों की रोशनी ने ले ली है,
पास के सारे गाँवों की बिजली,
शहरों की बाढ़ में डूब से गए हैं,
इन गाँवों की अपनी पहचान,
जब कोई पूछता है कि कहाँ से हो?
मैं बड़े विस्तार से बताना चाहता हूँ,
परसीपुर से आठ किलोमीटर दक्खिन,
बरवाँ गाँव है मेरा,
कोई ऑटो या ताँगा भले मिल जाये,
किंतु लठिया पुल से तीन किलोमीटर पैदल ही जाना होगा,
एक बूढ़े पीपल के पास का खड़ंजा रास्ता मेरे घर की ओर ताकता होगा,
पर मेरे सकुचाये गाँव को,
उघाड़ने की मुझमें हिम्मत नहीं,
और मुझे इतने क़रीब से जानने की,
तुम्हारे पास इतनी फ़ुरसत नहीं,
इसलिए मैं अपने गाँव की सारी मिठास,
शहर के चमचमाते रैपर में पेश करता हूँ,
“मैं बनारस से हूँ” सिर्फ़ यही कहता हूँ,
मेरे इतने कहने भर से,
तुम्हें गंगा से लेकर मोदी तक
हर चीज़ की फ़िक्र है,
किंतु इन बातों में कहाँ,
मेरे गाँव का ज़िक्र है,
इस तरह के अनेक गाँवों से बने 
मेरे देश की अजीब विडंबना है,
पगड़ी बांधे भटिंडा के पाजी ख़ुद को
दिल्ली का कहते हैं,
सफ़ेद चप्पल पहने आसनसोल के बड़े बाबू,
ख़ुद को कलकत्ते का समझते हैं,
हर कोई ख़ुद को किसी न किसी
शहर का कह रहा है,
जबकि उसके भीतर पहचान छुपाए,
उसका छोटा सा गाँव रह रहा है

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3. रात

आँखों में अचानक खुली नींद,
और पैरों में जूता बाँधे,
मैं सुनसान सड़क पर चलता हूँ
किसी भिनसार के तारे की तरह,
अधिकतम की लालसा लिए
दिन के निकल आने से पहले,
अपने न्यूनतम से बेहद खुश
रात सुस्ता रही है,
बेसुध सो रहे हैं घरों में लोग,
मानो मर चुके हों
और जलने की कोई जल्दबाज़ी न हो,
सारी भागदौड़ जीवन तक ही सीमित थी,
यहीं ऊँघती सड़कें थोड़ी देर में,
पट जाएँगी ट्रैफिक की चिल्ल पों से,

कितनी यात्राएँ, मिलन बिछोह
कितना कुछ ढोएँगे सुबह होते,
जीवन से मृत्यु की लंबी यात्रा में,

प्रेम, घृणा, क्रोध के कई पड़ाव मिलेंगे,
यही गहरी नींद में सोए ऑफिस,
अपने मीटिंग रूम में तय करेंगे,
अगले कई वर्षों का भविष्य,
मृत्यु की योजना से अनभिज्ञ,
जो चील की तरह झपट्टा मार लेगी
या फिर बिना धूप के बंद कमरों में,
एक लंबी नीरस प्रतीक्षा कराएगी,
विद्यालय की सो रही कक्षाएँ,
जहाँ आज सुबह परीक्षा में बच्चे पन्नों पर,
अपनी तक़दीर लिख रहे होंगे,
जबकि सच तो यह है,
दीमक खा गए उन अंक पत्रों को,
जिन्हें देखकर हम फूले नहीं समाते थे,
रद्दी के भाव बिक गई वो कॉपियाँ,
जिनपे Very Good देखकर इठलाते थे,
न जाने कितनो के लिये कितनी वजहों से
ख़ास हो सकता है यह दिन,
किंतु रात ने एक जादूगरिनी की तरह,
घुमा दी है विश्राम की छड़ी,
इस सारी दौड़ भाग पर ,
सड़कें, विद्यालय, ऑफिस, दुकानें,
सब गहरी नींद में सो गए हैं,
और बन गई है सबकी ख़ास,
जिस मज़दूर ने अपनी प्रेमिका को
रानी बनाने का वादा किया था,
वह अपने सिर पर मुकुट का स्वप्न देख सकता है,
और मैं,
जो सिर से पाँव तक एक कवि ठहरा,
जिसकी आत्मा तक में स्याही का नीला काला रंग पुता पड़ा है,
रात के वीराने से कई सहमे शब्द चुन लेता हूँ,
जिन्हें लेकर एक सुंदर वाक्य बनाऊँगा,
जिसे कहे जाने पर,
प्रेम और करुणा की गूंज सुनायी देगी,
इससे पहले की बीत जाये यह रात,
और दौड़ भाग प्रतियोगिता की घोषणा करता,
दिन पुनः उपस्थित हो
 
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 4. मज़दूर की प्रेमिका

उस मज़दूर ने अपनी प्रेमिका की,
नरम और मुलायम हथेलियों को,
जब अपनी खुरदरी हथेली में रखा,
उसे लगा जैसे अंगारों पर किसी ने,
रुई के ठन्डे फाहे रख दिए हों,

काम पर लौटते हुए उसे लगा,
मानो प्रेमिका की हथेलियों के परमाणु,
उसकी हाथों की रेखाओं में उतर आए हों,
उस रोज दिन भर काम करते हुए,
वह जिस चीज़ को हाथ लगाता,
उसमे उसकी प्रेमिका आ जाती,
पहली बार उस दिन मज़दूरी करते,
वह इतना ज्यादा खुश था,

उस लड़की ने जो कविताएँ सुनाई थी,
उसे उनके ज़रा सा भी मानी न पता थे,
किन्तु कानों में सितार की तरह,
गूंजती रही वे कवितायेँ नींद आने तक,

उस रात नींद में उस मज़दूर ने,
राजमुकुट साजने का स्वप्न जिया था,
जब प्रेम के अतिरेक में उस लड़की को,
रानी बनाने तक का वादा किया था,

इसी दुनिया में इसी तरह से रहते,
किस्मत के तमाम अत्याचार सहते,
वह जब भी उस लड़की से मिलकर लौटता,
उसे यही दुनिया खूबसूरत और
जीने लायक लगने लगती,
वह लड़की सिर्फ उसका प्रेम नहीं,
एक विश्वास थी,
कि एक दिन सब ठीक हो जाएगा। 

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दिसंबर में सिंगापुर

सिंगापुर सुस्ताता है,
दिसंबर के महीने में,
जैसे तेज रफ़्तार से भागता कोई धावक,
धीमा हो गया हो रेस के बाद,
आदतन जिस शहर को भागते देखा,
अजीब सा लगता है उसका,
यूँ धीमी गति से चलना,
अमूमन जिन बसों और ट्रेनों में,
भीड़ उमड़ आया करती थी,
उदास सी लगती हैं खाली सीटें,
जिन स्कूलों के पास के चौराहे,
पटे रहते थे बच्चों की मसखरी से,
वीरान से दिखती हैं वे काली सड़कें,
ऑफ़िस के मीटिंग रूमों की,
सारी गहमागहमी और शोर शराबा,
मानो क्रिसमस मनाने में व्यस्त हों,
लोगों के बिना लगता है जैसे,
इस चिड़ियाघर के सारे पंक्षी
उड़ गए हैं किसी अस्थायी प्रवास को,
और मौसम भी सहजोर हो जाता है,
इस अनायास से उपजे अकेलेपन का,
जब सुबह की गुलाबी ठंड,
हिलते डुलते से पेड़ों के पत्ते,
और हर शाम एक सीली सी हवा,
हाथ जोड़े बारिश की प्रतीक्षा करती हैं,
लगता है पी जाएगी साल भर की,
भूमध्यरेखीय गर्मी की तपिश को,
बेहतर होते चले जाने की,
अनवरत दौड़ में शामिल,
इस देश के विश्राम का समय है दिसंबर,
एक अजीब खुशनुमा नीरसता लिए,
सिंगापुर इस प्रतीक्षा में है कि,
लौट आयेंगे सारे प्रवासी पंक्षी
जनवरी के महीने में और फिर से,
पट जायेंगी सड़कें, स्कूल, ऑफिस,
जगह न होगी बसों और ट्रेनों में,
और जब दौड़ पड़ेगा तेज रफ़्तार में,
लगेगा की अब सब सामान्य है,
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विनोद दुबे















विनोद दुबे पेशे से जहाजी हैं पर लेखन में इनकी गहरी रुचि है। हिंदी युग्म और राजकमल प्रकाशन से इनके दो उपन्यास प्रकाशित हैं। चार कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। वर्तमान समय में विनोद जी सिंगापुर में रहते हैं और इंस्टाग्राम पर 'वीकेंड वाली कविता' चलाते हैं।


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