बुधवार, 26 फ़रवरी 2025
अरुणचंद्र राय
राकी गर्ग
1. पेड़ हो जाना
तो देखना
वहाँ उग आया है
एक पेड़
पर फूल नहीं आते उसमें
आती है सिर्फ पत्तियाँ
नहीं उठती उनसे कोई महक
वह कहती है हर उससे
जो बारिश और ताप से बचने
खड़े हो जाया करते उसके पास
प्रेम करने से पहले
दस बार सोचना
प्रेम करना
प्रतीक्षा करना है
अनंत काल तक
और फिर पेड़ हो जाना है।
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2. शाम का आसमान
शाम का आसमान
कुछ रंग-बिरंगा
कुछ धुँधला
कुछ स्याह
जैसे जाने की हड़बड़ी में हो
वह अपने घर
अपनी हथेलियों पर
लौटते पक्षियों की उड़ान देख
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3. चिड़ियाँ
चिड़ियाँ
पहचानती हैं बिल्लियों की आहट
वह रोक देती हैं फुदकना,
फड़फड़ाना और दाने चुगना
लैम्प पोस्ट के गहरे रंग में
कर लेती कैमफ्लाज
बिल्ली घात लगाए
बैठी दानों के पास
अंधेरा बढ़ा
बिल्ली किसी
और शिकार में आगे बढ़ी
चिड़िया फुर्र-फुर्र
चहकी चुगती दाने
लौटी घोसले में
ज़िंदगी की लड़ाइयाँ लड़ना
किसी पाठशाला में
नहीं सिखाया जाता
इसे जीतना पड़ता है
अपनी उड़ान के लिए
आसमान के लिए
चिडियाँ हमसे कितना
बेहतर जानती हैं।
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4. दरवाज़े
घर में बहुत से दरवाजे थे,
कुछ लकड़ी के
कुछ जाली के
और कुछ पारदर्शी
कुछ से छनकर आती थी रोशनी
और कुछ से आती थी हवा
जिनकी ओट से
हम देख सकते थे
एक-दूसरे को बिना छुए,
सिर्फ दूर से
भीतर तक भीगते हुए
धीरे-धीरे सारे दरवाजे
बंद होते गए
और चुनती गई दीवारें
अब कोई दरवाज़ा नहीं बचा
तुम्हारी ओर खुलने के लिए
बची हैं सिर्फ दीवारें
जिन पर बनाने लगे हैं
दीमक और मकड़ियाँ
अपने-अपने घर
जब सांस लेने की जगह बची न हो
और घर के बाहर खिंची हो
बहुत-सी रेखाएँ
जो हों लक्ष्मण रेखा से भी
अधिक खतरनाक
तब आहिस्ता-आहिस्ता
इन्हीं मकड़ी और दीमकों के साथ
जीने की आदत डालनी पड़ती है
बस, सालती है एक कसक
दरवाज़े और खिड़कियों वाले घर
कितने खूबसूरत हुआ करते थे!
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5. अनुपस्थिति
रोज नाश्ते की टेबल पर
तुम्हारी अनुपस्थिति
पूरा करना चाहती हूँ
अखबार के कुछ पन्नों से
बार-बार नजरें ढूँढती हैं
गुमशुदा के विज्ञापनों को
शायद हो कोई विज्ञापन
तुम्हारे नाम का
पर कहीं नहीं मिलता
तुम्हारा नाम
वह, जो कभी आया ही नहीं,
उसका जाना कैसा?
कैसे हो सकता है गुमशुदा वह?
फिर भी काले अक्षरों के बीच
ढूँढती रहती हूँ तुम्हारा नाम
प्रेम भी न जाने
कितने भ्रमों में जीता है
प्रेम में शायद
हर आदमी अभिमन्यु होता है
जिसे चक्रव्यूह में प्रवेश
करना तो आता है
पर आखिरी द्वार
तोड़ना नहीं आता
तो मैं भी कह सकती थी
विदा...
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6. रिश्ते
मुझे रिश्ते संभालने नहीं आए
पेड़-पौधों की तरह
उन्हें सींचना भी नहीं आया
पर कुछ रिश्ते
उम्र-दर-उम्र
वक़्त की चौखट पार करते गए
यकीन के साथ
कि सारी दुनिया
जब होगी खिलाफ
हम एक-दूसरे के साथ होंगे।
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7. तुम्हारे लिए
तुम्हारे लिए
जो सिर्फ शब्द थे
अधूरी इच्छाओं को
अभिव्यक्त करने का माध्यम
मुझे यकीन है
वो बाण तो नहीं थे
और न ही छर्रे
वरना एक ही आदमी
नहीं मरता
हर दिन
बार-बार
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राकी गर्ग
बुधवार, 19 फ़रवरी 2025
श्रुति कुशवाहा
1. भाषा
भटक रही है भाषा
अब विरोध कहने पर
विद्रोह सुनाई देता है
असहमति कहने पर अराजक
लोकतंत्र कहते ही
होने लगती है जोड़-तोड़
धर्म कहो सुनाई देता है भय
अब तो सफ़ेद भी सफ़ेद नहीं रहा
और लाल भी हो गया है नीला
यहाँ तक कि अँधेरे समय को बताया जा रहा है सुनहरा
ऐसे भ्रमित समय में
मैं शब्दों को उनके सही अर्थों में पिरोकर देखना चाहती हूँ
सोचती हूँ शहद हर्फ़ उठाकर उँडेल दूँ शहद की बोतल में
तुम्हारे नमकीन चेहरे पर
मल दूँ नमक का नाम
आँसू को चखा दूँ खारा समंदर
रोशनी को रख दूँ
मोमबत्ती की लौ पर
मैं इंसाफ बाँट आना चाहती हूँ गली के आखिरी छोर तक
और बचपन लिखने के बजाय
बिखेर देना चाहती हूँ
अखबार बेचते बच्चों के बीच
सपने टूटने से पहले
सजा देना चाहती हूँ आँखों में
और प्यार को इश्तिहारों से उठा
मन में महफूज़ रखना चाहती हूँ
मैं भटकी हुई भाषा को
उसके घर पहुँचाना चाहती हूँ।
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2. उम्मीद
कड़े दिनों के लिए
थोड़े पैसे छिपाए किताब में
बुरे वक़्त के लिए
थोड़े-से रिश्ते सहेजे थे
भविष्य का सोच
थोड़ा नाम कमाया
पहचाने जाने को
मैंने उदासियों के मौसम में
उम्मीद के कुछ बीज बोए थे
ज़रूरत पड़ी तो पाया
आधा अनाज चूहे खा गए
पैसों के साथ किताब भी
सील गई
रिश्ते सब छूट गए
नाम गुम गया
मैं थोड़ी और उदास हो गई
तभी देखा
उम्मीद की फसल
लहलहा रही थी
इस उम्मीद ने मुझे हर बार
भूख-प्यास या सदमे में मरने से बचाया है।
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3. राई का पहाड़
काफी था राई बराबर प्रेम
राई बराबर प्रेम में
रत्तीभर कमी रह ही जाती है
रत्तीभर कमी भी मंज़ूर नहीं थी मानवाली स्त्री को
एक रोटी कम स्वीकार थी,
कौरभर कम प्रेम नहीं
उसने प्रेम को हृदय में रखा
मान को ललाट पर
स्त्री का हृदय हमेशा घायल रहा
और जीवन भर दुखता रहा माथा
मानिनी स्त्री को
राईभर प्रेम मिला
उसने राई का पहाड़ बना दिया
पहाड़ों को काटकर निकाली नहर
बंजर में उगाया धान
पत्थरों में फूल खिलाए
प्रेम सबसे सुंदर फूल था
नेह के बिना पहाड़ तो
जी जाते हैं, फूल नहीं
मान वाली स्त्री का
मन भी बड़ा होता है
बड़े मन और बड़े मानवाली
स्त्री को
भला कब सहेज पाई है दुनिया
इसलिये अब स्त्री ने ख़ुद से प्रेम करना सीख लिया है।
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4. पंचतत्व
मैंने तुम्हें देखाआकाश-सी विस्तृत
हो गई कल्पनाएँ
पृथ्वी-सा उर्वर हो गया मन
सारा जल उतर आया आँखों में
अग्नि दहक उठी कामना की
विचारों को मिल गए वायु के पंख
देखो न
कितना अच्छा है देखना तुमको।
5. दुख
मिलती है जलने की ऊर्जा
इस संसार में जितनी
आग है, जितना लावा
जितने भी धधकते हुए सीने हैं
सब दुख की दमक से भरे हैं
दुख की धुरी पर घूमती है पृथ्वी
सुख एक चमत्कार है
जो कभी-कभी घटता है
अक्सर भ्रम अधिक सत्य कम
दुख धरती की दिनचर्या है
पेड़ों के फल भले सूखे हों
जड़ें दुख से गुँथी हुई हैं
सुख को पालना कठिन हैै
उसे हर वक्त प्रशस्ति की
कामना रहती है
वहीं थोड़े में गुज़ारा
कर लेता है दुख
दो आँखों और मुट्ठीभर हृदय में
जीवनभर के लिये बस जाता
दुख को आदत है
साथ निभाने की
दुख और सुख सहोदर हैं
और एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न
दोनों की आपस में
बिलकुल नहीं बनती
दोनों एक साथ कभी नहीं ठहरते
सुख घुमक्कड़ आवारा है
दुख स्थायी ठिकाना
सुख एक बेईमान प्रेमी है
जिसके पीछे-पीछे चला
आता है हमसफ़र दुख।
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श्रुति कुशवाहा
वे ईटीवी हैदराबाद, सहारा न्यूज़ दिल्ली, लाइव इंडिया मुंबई सहारा न्यूज़/बंसल न्यूज़ भोपाल, टाइम टुडे आदि न्यूज़ चैनलों में कार्य कर चुकी हैं। वर्तमान समय में श्रुति जी गृहनगर भोपाल में पत्रकारिता एवं लेखन कार्य में संलग्न हैं।
बुधवार, 12 फ़रवरी 2025
वंदना मिश्रा
1.आदेश
2. कितना जानती है स्त्री अपने बारे में
3. गुलाबी मौसी
4. किताबें
5. सिर्फ़ दवा नहीं
6. कोई गुनाह नहीं
वंदना मिश्रा
बुधवार, 5 फ़रवरी 2025
जसवीर त्यागी
1. गेहूँ
गेहूँ से भरी बैलगाड़ी
मंडी जा रही है
रास्ते में
गेहूँ के कुछ दाने
धरती पर गिर गये हैं
बैलगाड़ी में भरे दानें
भावुक हो रहे हैं
धरा पर छूट गए दानों को देखकर
बिछुड़न की पीड़ा में भीग रहे हैं
मिट्टी दानों की माँ है
और बाज़ार साहूकार
दुनिया में कौन है?
जो अपनी माँ से बिछुड़कर
साहूकार की शरण जाना चाहेगा।
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2. कारागार
घर में कोई सामान रखकर भूल जाता हूँ
खोजने पर भी
जब नहीं मिलता
तब पत्नी से पूछता हूँ
वह अपनी जादुई निगाहों से
सामान को प्रकट कर देती है
मेरे चेहरे की खुशी
उस समय देखते ही बनती है
पढ़ते-पढ़ते कोई प्रसंग याद आता है
उससे जुड़ी कोई पुस्तक
या रचनाकार को याद करता हूँ
बार-बार के याद करने पर भी
स्मृति को हाथ से छूटी हुई बाल्टी की तरह
कुँए में गिरते हुए देखता हूँ
तब बिटिया झट से उस पुस्तक या लेखक को
सामने लाकर खड़ा कर देती है
मैं बुझे हुए चिराग-सा
रोशनी से जगमगा उठता हूँ
स्त्रियाँ न हो जीवन में
तो यह दुनिया
किसी कारागार से कतई कम नहीं लगती।
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3. रंग
मेरे घर की खिड़की से
एक हरा पेड़
और नीला आसमान दिखता है
हरा और नीला रंग
मेरे रक्त के लाल रंग को
दुरुस्त रखते हैं।
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4. नयन
जाड़ा आने पर
माँ आँगन में
एक खाट पर बैठ जाती है
प्रातः की सुनहरी धूप
माँ के चेहरे पर विराजती है
उस समय
माँ व धूप को देखना
आत्मीय लगता है
जिंदगी के दो नयन हैं
माँ और धूप
जिनसे मैं
इस जगत को देखता हूँ।
5. रोटी की सुगंध
सड़क किनारे पटरी पर, दो स्त्री- पुरुष
रेहड़ी पर रोटी सब्जी बना रहे हैं
स्त्री के छोटे-छोटे हिम्मती हुनरमंद हाथ
तेज गति से गोलाकार रोटियाँ बेल रहे हैं
पुरुष खाली थालियों को भरने में मगन हैं
तवे पर सिकती रोटियों की गंध
हवा में घुल रही है धीरे-धीरे
जैसे धीरे-धीरे सब्जी में घुलता है नमक
रोटी की गंध
संसार की प्रिय गंधों में सबसे ऊपर है
चम्मच,कटोरी,थाली और चिमटे की आवाज़
भूखे आदमी को
भोज का आमंत्रण दे रही है
रेहड़ी के इर्द-गिर्द
चाव से भोजन कर रहे हैं मेहनत कश-मजदूर
भोजन करता हुआ आदमी
हर भाषा में श्रेष्ठ कविता है
रोटियाँ सेंकती स्त्री और भोजन करते लोग
दूर से ही चमकते हैं
ज्यों चमकती है चूल्हे में आग।
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6. लेखन-प्रक्रिया
जसवीर त्यागी
लोकप्रिय पोस्ट
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निमकी की छाती निमकी को बुस्शर्ट पहनने का बड़ा शौक भैया जैसी, छोटू जैसी समीज हाफ़ पैंट में खोंस एकदम टशन से बाहर निकलती कंचे-गोली खेलने ब...
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1. गेहूँ गेहूँ से भरी बैलगाड़ी मंडी जा रही है रास्ते में गेहूँ के कुछ दाने धरती पर गिर गये हैं बैलगाड़ी में भरे दानें भावुक हो रहे हैं धरा पर ...