गुरुवार, 30 मई 2024

मुदित श्रीवास्तव

 पंच-अतत्त्व

'मैं ताउम्र जलती रही दूसरों के लिए

अब मुझमें ज़रा भी आग बाक़ी नहीं'

-आग ने यह कहकर 

जलने से इनकार कर दिया


'मैं बाहर निकलूँ भी तो कैसे

बाहर की हवा ठीक नहीं है'

-ऐसा हवा कह रही थी


'मेरे पिघले हुए को भी 

कहाँ बचा पाए तुम?'

-ऐसा पानी ने कहा 

और भाप बनकर गायब हो गया 


'मैं अपने आपको समेट लूँगा

इमारतें वैसे भी मेरे विस्तार में

छेद करती बढ़ रही हैं'

-ऐसा आकाश ने कहा

और जाकर छिप गया इमारतों के बीच

बची दरारों में.....


जब धरा की बारी आई

तो उसने त्याग दिया घूर्णन 

और चुपचाप खड़ी रही अपनी कक्षा में

दोनों हाथ ऊपर किए हुए

यह कहकर -

'मैं बिना कुछ किए

सज़ा काट रही हूँ!'


इससे पहले कि मेरा शरीर कहता -

'मैं मर रहा हूँ'

वह यूँ मरा 

कि न उसे जलने के लिए आग मिली

न सड़ने के लिए हवा

न घुलने के लिए पानी

न गड़ने के लिए धरा

न आँख भर आसमान

फटी रह गईं दो आँखों को........

___________________________________

पेड़पन

हम ऐसे पेड़ हैं 

जिनके पैरों तले

ज़मीन और जड़ें भी नहीं 

सूखी हुई बाँहें हैं

उनमें पत्तियाँ भी नहीं

हमारे सूखे हुए में भी इतनी क्षमता नहीं कि

किसी ठंढी देह को 

आग दे सके....

जब हमने 

अथाह भागने की जिद पकड़ी थी

तभी हमने अपना पेड़पन खो दिया था|

_____________________________________

पेड़ों ने छिपाकर रखी तुम्हारे लिए छाँव

पेड़ों ने छिपाकर रखी तुम्हारे लिए छाँव

अपनी जड़ों में दबाकर रखी मिट्टी 

बुलाया बादल और बारिशों को 

सहेजे रखा पानी अपनी नसों में


दिए तुम्हें रंग  

तितलियाँ, परिन्दें

घोंसले और झूले 


पेड़ों ने दिए तुम्हें घर

घर के लिए किवाड़ और खिड़कियों के पलड़े

भी दिए तुम्हें


खुद जलकर दी तुम्हें आग

बुझकर के दिया कोयला 

सड़कर के दिया ईंधन


पेड़ों ने तुम्हें

वह सब कुछ दिया 

जिससे तुम जीवित हो


पेड़ों ने दिया तुम्हें 

सम्पूर्ण जीवन 

और

पेड़ों को तुमने दी 


मृत्यु!

____________________________________

उधार

मुझे चाहिए 

एक पहाड़, उधार

जिसके अंतिम छोर तक 

गूँज सकती हो मेरी आवाज़

जिसके काँधे पर 

सर रखता हो बादलों का गुच्छा

और रोता हो ज़ार-ज़ार


एक नदी, उधार

जिसके किनारे घंटों बैठकर

पानी में करूँ पैर तर

जिसके दोनों ही किनारे हों

सात समंदर पार


एक पेड़, उधार

जिसकी शाखाएँ

चाहती हैं मुझसे गले लगना

जिसकी छाँव तले

बसा सकता हूँ, पूरा संसार


मुझे एक फूल, उधार

जिसको मैं तुम्हारे बालों से निकालकर 

फिर उसी पौधे में लगा सकूँ

जिस पर एक तितली का 

करता था वह इंतज़ार!


यही सब मुझे जीने के लिए 

चाहिए उधार!

________________________________

खो चुकी क्षमताएँ

उँगलियों ने अब 

छू कर पहचान लेने की क्षमता खो दी है

वे नहीं जानतीं-

जीवित और मृत

देहों के तापमान का फ़र्क


एक अदृश्य छुअन

घर बनाती है भीतर-

कसती हुई

दिल की धड़कन अब

फड़फड़ाहट में बदल चुकी है


वह भूल चूका है कि

किसी को बाँहों में भरने पर

कितना तेज़ भागना होता है

कितनी देर के लिए थमना


अब धड़कनें पल-पल चोट करती हैं

आँखों ने सुन्दरता

देखने का हुनर खो दिया है

अब वे गुलाब को ख़ून समझती हैं

चिड़ियों को मौत का संदेशा

धूप को एक शून्य

उन्हें अँधेरे में सुख मिलता है

वे अब चाहती हैं कि 

बारिश का रंग भी काला भी रहे

भीतर एक ज़िंदगी रहती थी

वह निकलकर जा चुकी है कहीं

किसी क़ब्र में

वापस आने के लिए

पैरों ने अपने हाथ खड़े कर दिए हैं

क़लम से ख़ून रिसने लगा है

एक नीली कविता

अब लाल है|

__________________________________

मुदित श्रीवास्तव


29 नवम्बर 1991 को जन्मे  कवि-लेखकमुदित श्रीवास्तव ने सिविल इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की है| पर्यावरण के प्रति गहरी संवेदनशीलता इनकी कविताओं की विशेषता है| बाल-पत्रिका 'इकतारा',  द्विमासी पत्रिका 'साइकिल' आदि के लिए कविता, कहानी लिखते हैं | देश की प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं| फोटोग्राफी तथा रंगमंच में रूचि रखते हैं|

 








बुधवार, 22 मई 2024

वसु गंधर्व

 भूलना 

अनवरत देखते हुए भी

भूला जा सकता है चीजों को 

आकाश बन सकता है एक नीला खोखल

अन्धकार

मृत्यु के तल में तैरती आँख


चाँद को भूलने के बाद

रात में खुदा हुआ एक गोल गड्ढा दीखता है

जिसमें से झाँकते हैं

रात में ओझल हुए चेहरे

जैसे बुढापे की झुर्रियों में से

झाँकता हो बचपन का धूमिल मुख


अपनी शक्ल भूलने पर 

आईने में दीखता है 

एक अनजान व्यक्ति

जिसकी चौड़ी फैली आँखों के भीतर

एक असंभव प्रतिसंसार भर रिक्तता और

असंख्य स्वप्नों की उदासी होती है कैद


मृत्यु तक पीछा करती हैं

बचपन में भूले चेहरे की रेखाएँ


लौट नहीं जा सकते अब वापस

पुरानी जगहें भूल चुकी हैं

हमारे नाम और चेहरे|

________________________________________

टूटता वृक्ष

टूटता वृक्ष बहुत धीमी गति से

पृथ्वी को सौंपता है

अपने आध्यात्म के सूत्र

घास को सौंपता है अपनी छाल

चढ़ आने की जगह 

अनेक गिलहरियों, चिड़ियों, बाँबियों में रहते जीवों को 

अपना कष्ट जर्जर शरीर

और अपनी क्षीण होती आत्मा 


कि जब उसके ह्रदय से पूर्णतः लुप्त हो जाए जीवन का संगीत

तब भी पृथ्वी पर जीवन के सर्वत्र अनुनाद में

वह जोड़ सके अपना एक स्वर


ऐसे होता है वह अमर


जिन भी दु:स्वप्नों में मैं टूटता हूँ, ढहता हूँ 

उनमें सबसे अधिक दिखाई देते हैं प्रियजन

और जैसे सीनों पर धरे सुराख़

उनकी विवर्ण, जर्जर आत्माएँ|

_________________________________ 

निकलो रात

निकलो रात

अन्धकार के अपने झूठे आवरण से 

किसी मूक यातना के पुराने दृश्य से

किसी दुख के बासी हो चुके

प्राचीन वृत्तांत से निकलो बाहर

उस पहले डरावने स्वप्न से निकलो


निकलो शहज़ादी की उनींदी कहानियों से 

और हर कहानी के ख़त्म होने पर सुनाई देने वाली 

मृत्यु की ठंडी सरगोशियों से 


अंधी स्मृतियों में बसे 

उन पागल वसंतों के

अनगढ़ व्याख्यान से निकलो


निकल आओ

आकाश से|

_______________________________________

एकांत

रात के सबसे उबाऊ क्षण

घड़ी की अनवरत टिकटिक

चाहे जो कहे तुमसे

लेकिन अकेला ब्रह्माण्ड में कुछ नहीं होता 


उदाहरण के लिए

जिस शुष्क पत्ती को तुमने कुचल दिया था कल

उसके अवशेषों में अब तक

अनगिनत चीजें मुखरित होकर बोलती हैं

उसमें कितना सारा अतीत है,


जीवन के कितने रंग,

कितने राग,

कितने झरने,

कितनी आग


इसमें ऋतुओं के वे आख्यान दर्ज हैं जो वृक्ष ने नहीं सुने, किसी दूसरी पत्ती ने भी नहीं

धूप के ह्रदय में कुछ ऐसा गोपन था जो उसने बस इससे ही कहना चुना

विस्मृति की भाषा बोलता पतझर कितने अलग संगीत में विन्यस्त हुआ इसकी शिराओं में 

कोई नहीं जानता कि रात क्या बुदबुदाती थी इससे हर रोज़


यह जब गिरा पृथ्वी पर 

तो जिस सौम्य सिहरन से कांपा पृथ्वी का अंतर 

उसकी धुँधली  याद शायद कभी पूरी तरह नहीं मिटेगी


इसके होने की कथा ईश्वर तक पहुँच सकती है

अब बहुत सहजता से

निकाल लिए जा सकते हैं गंभीर दार्शनिक निष्कर्ष


लेकिन दरअसल इतनी ही बात खरी है, और सच्ची


कि अकेला कुछ नहीं होता ब्रहांड में|

_______________________________________

 पुराना आदमी

अकेली दीवारों जैसे

हाथों में जमती काई

बंद आँखों पर जमी होती गर्द

टूट कर इधर-उधर बिखरे होते पलस्तर

और बरसात में 

भीतर टप-टप गिरता रहता सीलन का 

पानी

हर रात 

उसके अन्दर

कोई भी जा सकता था

सुन सकता था 

अपनी ही आवाज़ गूँजकर आती

बंद कमरों से

भीतर से खोखली थीं दीवारें

निरर्थक था स्मृतियों का चिट्ठा 

अब बस देखना था

कि वह कब ढहेगा|

_______________________________________

वसु गंधर्व


2001 में जन्मे युवा कवि वसु गंधर्व ने स्नातक की शिक्षा पूर्ण की है|

इनकी एक काव्य कृति 'किसी रात की लिखित उदासी' 

प्रकाशित हुई है| कई पत्रिकाओं तथा वेब ब्लॉग्स पर इनकी 

कविताएँ प्रकाशित होती रही हौं|  कविता के अतिरिक्त दर्शन, 

अर्थशास्त्र,  विश्व साहित्य में इनकी रूचि है |

ये शास्त्रीय संगीत में भी प्रशिक्षित हैं|


बुधवार, 15 मई 2024

शचीन्द्र आर्य

 चप्पल

शहर के इस कोने से जहां खड़े होकर

इन जूतियों और चप्पलों वाले इतने पैरों को आते जाते देख रहा हूँ, 

उन्हें देख कर इस ख़याल से भर आता हूँ के कभी यह पैर 

दौड़े भी होंगे?

किसी छूटती बस के पीछे,

बंद होते लिफ्ट के दरवाज़े से पहले,

किसी आदमी के पीछे.


मेरी कल्पना में कोई दृश्य नहीं है,

जहाँ मैंने कमसिन कही जाने वाली लड़की,

किसी अधेड़ उम्र की औरत

और किसी उम्र जी चुकी बूढी महिला को भागते हुए देखा हो.


ऐसा नहीं है वह भाग नहीं सकती, या उन्हें भागना नहीं आता,

बात दरअसल इतनी-सी है,

जिसने भी उनके पैरों के लिए चप्पल बनाए है,

उसने मजबूती से नहीं गाँठे धागे.

पतली-पतली डोरियों से उनमें रंगत भरते हुए 

वह नहीं बना पाया भागने लायक.


सवाल इतना-सा ही है,

उसे किसने मना किया था, ऐसा करने से?

________________________________________

धौला कुआँ

वह बोले, वहां एक कुआँ होगा और

उन्होंने यह भी बताया,

यह धौला संस्कृत भाषा के धवल शब्द 

का अपभ्रंश रूप है|


जैसे हमारा समय, चिंतन, जीवन, स्पर्श,

दृश्य, प्यास सब अपभ्रंश हो गए 

वैसे ही धवल घिस-घिस कर धौला 

हो गया|


धवल का एक अर्थ सफ़ेद है|

पत्थर सफ़ेद, चमकदार भी होता है|

उन मटमैली, धूसर, ऊबड़ खाबड़ 

अरावली की पर्वत श्रृंखला 

के बीच सफ़ेद संगमरमर का मीठे पानी 

का कुआँ| धौला कुआँ|


कैसा रहा होगा, वह झिलमिलाते पानी

को अपने अन्दर समाए हुए?

उसके न रहने पर भी उसका नाम रह गया |

ज़रा सोचिए, किनका नाम रह जाता है,

उनके चले जाने के बाद?

कहाँ गया कुआँ? कैसे गायब हो गया?

किसी को नहीं पता|


एक दिन,

जब धौलाधार की पहाड़ियाँ इतनी 

चमकीली नहीं रह जाएँगी,

तब हमें महसूस होगा, वह सामने ही था 

कहीं|

ओझल सा|

उस ऊबड़-खाबड़ मेढ़ के ख़त्म होते ही

पेड़ों की छाव में छुपा हुआ सा|


जब किसी ने उसे पाट दिया, तब उसे

नहीं पता था,

कुँओं का सम्बन्ध पहाड़ों से भी वही था,

जो जल का जीवन से है|

____________________________________

ईर्ष्या का सृजन

जब हैसियत 

सपने देखने की भी नहीं रही

ईर्ष्या का सृजन नहीं हुआ

ईर्ष्या का सृजन तब हुआ 

जब हम नहीं जान पाए 

हमारी सपने देखने वाली रातें

कहाँ और कैसे चोरी हो गईं?

____________________________________

सड़क जैसी ज़िंदगियां

दिल्ली के कई जाम झगड़ों की तरह थे


जैसे जाम खुलने पर पता नहीं चल पाता था,

क्यों फंसे हुए थे

ऐसी ही कुछ वाजिब वजह नहीं थी

कई सारे झगड़ों की.


जाम और झगड़े बेवजह ही थे

हमारी सड़क जैसी जिंदगियों में.

_______________________________________

कम जगह

मैंने पाया,

कविताएँ कागज़ पर बहुत कम जगह घेरती हैं

इसलिए भी इन्हें लिखना चाहता हूँ.


यह कम जगह उस कम हो गयी संवेदना को कम होने नहीं देगी.

इसके अलावे कुछ नहीं सोचता.

जो सोचता हूँ, कम से कम उसे कहने के लिए कह देता हूँ.


कहना इसी कम जगह में इतना कम तब भी बचा रहेगा.

उसमें बची रहेगी इतनी जगह, जहां एक दुनिया फिर से बनाई जा सके.

_________________________________


शचीन्द्र आर्य

9 जनवरी 1985 को जन्मे युवा कवि-गद्यकार शचीन्द्र आर्य ने 

दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग(सीआईई) से 

शोध किया तथा बी.एड. एवं एम.एड. की उपाधियाँ प्राप्त की हैं|

 इनकी कविताएँ एवं कहानियाँ देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं 

में प्रकाशित होती रही हैं| "शहतूत आ गए हैं', 'दोस्तोएवस्की का घोडा' 

पुस्तकें प्रकाशित| सम्प्रति अध्यापन |


गुरुवार, 9 मई 2024

अनामिका अनु

क्षमा 

तुमने पाप मिट्टी की भाषा में किए

मैंने बीज के कणों में माफ़ी दी


तुमने पानी से पाप किए

मैंने मीन-सी माफ़ी दी


तुम्हारे पाप आकाश हो गए

मेरी माफी पंक्षी


तुम्हारे नश्वर पापों को

मैंने जीवन से भरी माफ़ी बख्शी


तुमने गलतियां गिनतियों में की 

मैंने बेहिसाब माफ़ी दी


तुमने टहनी भर पाप किए

मैंने पत्तियों में माफ़ी दी


तुमने झरनों में पाप किए

मैंने बूंदों से दी माफ़ी


तुमने पाप से तौबा किया

मैंने स्वयं को तुम्हें दे दिया 


तुम सांझ से पाप करोगे

मैं डूबकर क्षमा दूँगी


तुम धूप से पाप करोगे

मैं माफ़ी में छाँव दूँगी


नीरव, निशब्द पापों

को झींगुर के तान वाली माफ़ी


वाचाल पापों को 

मौन वाली माफ़ी


वामन वाले पाप को

बलि वाली माफ़ी


तुम्हारे पाप से बड़ी होगी मेरी क्षमा

मेरी क्षमा से बहुत बड़े होंगे

वे दुःख.....

जो तुम्हारे पाप पैदा करेंगे|

__________________________

न्यूटन का तीसरा नियम

तुम मेरे लिए 

शरीर मात्र थे

क्योंकि मुझे भी तुमने यही महसूस कराया|


मैं तुम्हारे लिए 

आसक्ति थी,

तो तुम मेरे लिए 

प्रार्थना कैसे हो सकते हो?


मैं तुम्हें 

आत्मा नहीं मानती,

क्योंकि तुमने मुझे

अंतःकरण नहीं माना|


तुम आस्तिक

धरम-करम मानने वाले ,


मैं नास्तिक!

न भौतिकवादी, न भौतिकीविद 


पर फिर भी मानती हूँ

न्यूटन का तीसरा नियम -

क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती है,

और हम विपरीत दिशा में चलने लगे......|

__________________________________

शिक्षा

जिस पानी को दरिया में होना था

वह कूप, नल, पानी शुद्धिकरण 

यंत्र से कैसे बोतलों में बंद बिकने लगी?

प्यास ज्ञान की इन बोतलों 

से नहीं मिटने वाली,

दरिया को बचाना होगा|

संकुचन-

दिमागी बौनों की भीड़ गढ़ गया


वे जो दौड़ रहे हैं पत्थर के बुत की और

इंसानों को रौंदकर 

बताते हैं,

दरिया का विकल्प बोतलें नहीं होतीं|

_________________________________

मैं मारी जाऊँगी

मैं उस भीड़ के द्वारा मारी जाऊँगी 

जिससे भिन्न सोचती हूँ|


भीड़-सा नहीं सोचना 

भीड़ के विरुद्ध होना नहीं होता है|

ज्यादातर भीड़ के भले के लिए होता है

ताकि भीड़ को भेड़ की तरह

नहीं हाँका जा सके|


यह दर्ज फिर भी हो 

कि

भिन्न को प्रायः भीड़ ही मारती है|

_______________________________   

अफ़वाह

अफ़वाह है कि एक बकरी है

जो चीर देती है सींग से अपने, छाती शेर की| 


ख़रगोश बिल में दुबका है,

बाघ माँद में डर से,

लोमड़ी और गीदड़ नहीं बोल रहे हैं कुछ भी|


पर एक जोंक है

बिना दांत, हड्डी के रीढ़ वाली

वह चूस आयी है सारा खून बकरी का|


कराहती बकरी कह रही है-

"अफ़वाह की उम्र होती है,

सच्चाई ने मौत नहीं देखी है

 क्योंकि यह न घटती है, न बढ़ती है|"

____________________________________

अनामिका अनु

जनवरी 1982 को जन्मी केरल निवासी अनामिका अनु मूलतः बिहार के मुजफ्फरपुर से आती हैं| वनस्पति विज्ञान में एम.एससी. और पीएच,डी. अनामिका अनु का 'इंजीकरी' नामक एक काव्य-संग्रह तथा प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ एवं अनुवाद प्रकाशित हुए हैं| 'यारेख' पुस्तक का संपादन भी किया है|
इन्हें वर्ष 2020 में भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, 2021 में राजस्थान पत्रिका वार्षिक सृजनात्मक पुरस्कार(सर्वश्रेष्ठ कवि), 2022 में रज़ा फेलोशिप, 2023 में महेश अंजुम युवा कविता सम्मान से सम्मानित किया गया है|



बुधवार, 1 मई 2024

विजय राही

महामारी और जीवन 

कोई ग़म नहीं 

मैं मारा जाऊँ अगर 

सड़क पर चलते-चलते 

ट्रक के नीचे आकर 


कोई ग़म नहीं 

गोयरा  खा जाए मुझे 

खेत में रात को 

ख़ुशी की बात है 

अस्पताल भी नहीं ले जाना पड़े 


कोई ग़म नहीं 

ट्रेन के आगे आ जाऊँ 

फाटक क्रासिंग पर 

पटरियों से चिपक जाऊँ 

बिलकुल दुक्ख  न पाऊँ 


अगर हत्यारों की गोली से 

मारा जाऊँ तो और अच्छा 

आत्मा में सुकून पाऊँ 

कि जीवन का कोई अर्थ पाया 


और भी कई-कई बहाने हैं 

मुझे बुलाने के लिए मौत के पास 

और कई-कई तरीके हैं मर जाने के भी 


लेकिन इन महामारी के दिनों में 

घबरा रहा हूँ मरने से 

उमड़-घुमड़ रहा है मेरे अंदर जीवन 

आषाढ़ के बादलों की तरह 

जबकि हरसू मौत अट्टहास कर रही है।

_____________________________________

 जेबकतरा 

मैं उसे पहचान नहीं पाया 

मुझे पैसे-काग़ज़ातों का ग़म नहीं 

मैं तो उससे पूछना चाहता हूँ 

किस कमजोर पल का इंतज़ार करता है वह 

शातिर प्रेमियों की तरह 


जो खुद को चालक समझने वाला कवि 

मात खा गया आज एक ऐसे आदमी से 

जिसने अपना काम पूरी ईमानदारी से किया है 

आहिस्ता से पीछे की जेब से पर्स पार किया 

इस तरह तीरे-नीमकश भी जिगर के पार नहीं होता 


मैं उसके हाथ चूमना चाहता हूँ

और कहना चाहता हूँ 

पैसों की शराब पी लेना चाहे 

आधार-जनाधार कूड़े में फेंक देना 

अगर मन करे तो पर्स रख सकते हो 

लेकिन पर्स में रखी प्रेम-कविता को मत फेंकना 


उसे अपनी प्रेमिका को सुनाना और बताना 

कि यह मैंने लिखी है तुम्हारे प्यार में 

जिस दी जेब नहीं काट पाया और निराश था 

उस दिन यह कविता और कागज ही मेरे पास था।

___________________________________ 

गर्मियाँ 

सूख गया है तालाब का कंठ 

उसके पास खड़े पेड़ पौधे उसकी ओर झुक गए हैं 

उसको जिलाए रखने के लिए हवा कर रहे हैं 

उनके पत्ते झरते हैं उसकी तपती देह पर 


अचानक उसकी छाती में हिलोर उठती है 

एक औरत घड़ा लेकर गीत गाती आ रही है 

उसको पानी पिलाने के लिए।

_________________________________

बेबसी 

सर्दी की रात तीसरे पहर 

जब चाँद भी ओस से 

भीगा हुआ सा है 

आकाश की नीरवता में 

लगता है जैसे रो रहा है 

अकेला किसी की याद में 

सब तारे एक-एक कर चले गए हैं।

बार-बार आती है कोचर की आवाज़ 

रात के घुप्प अंधेरे को चीरती हुई 

और दिल के आर-पार निकल जाती है 

पांसूओं को तोड़ती हुई 

झींगुरों की आवाज़ मद्धम हो गई है 

रात के उतार के साथ।

हल्की पुरवाई चल रही है 

काँप रही है नीम की डालियाँ 

हरी-पीली पत्तियों से ओस चू रही है 

ऐसे समय में सुनाई देती है 

घड़ी की टिक-टिक भी 

बिलकुल साफ़ और लगातार बढ़ती हुई।

बाड़े में बंधे ढोरों के गले में घंटियाँ बज रही हैं 

अभी मंदिर की घंटियाँ बजने का समय 

नहीं हुआ है 

गाँव नींद की रज़ाई में दुबक है।

माँ सो रही है पाटोड़ में 

बीच-बीच में खाँसती हुई 

कल ही देवर के लड़के ने 

फावड़ा सर पर तानकर 

जो मन में आई 

गालियाँ दी थी उसे 

पानी निकासी की ज़रा सी बात पर।

बड़े बेटे से कहा तो जवाब आया 

"माँ! आपकी तो उम्र हो गयी 

मर भी गई तो कोई बात नहीं 

आपके बड़े-बड़े बेटे हैं।

हमारे तो बच्चे छोटे हैं!

हम मर गए तो उनका क्या होगा?"

माँ सोते हुए अचानक बड़बड़ाती है 

डरी हुई काँपती हुई,

घबराती आवाज़ में रुदन 

सीने में कुछ दबाव सा है।

मैं माँ के बग़ल वाली खाट पर सोया हूँ 

मुझे अच्छी नींद आती है माँ के पास 

एक बात ये भी है कि-

माँ की परेशानी का भान है मुझे 

बढ़ रही है जैसे-जैसे उम्र 

माँ अकेले में डरने लगी है।

जब तक बाप था 

माँ दिन-भर खेत क्यार में खटती 

रात में बेबात पिटती 

मार-पीट करते बाप की भयानक छवियाँ  

माँ को दिन-रात कँपाती 

बाप के मरने के बाद भी उसकी स्मृतियाँ 

माँ को सपनों में डराती 

फिर देवर जेठों से भय खाती रही 

और अब अपनी औलाद जैसों का डर।

 माँ की अस्पष्ट, घबरायी हुई 

कंपकंपाती, डर खाई आवाज़ 

जो मुझे सोते हुए बुदबुदाहट लग रही 

जगने पर बड़बड़ाहट मैं बदल जाती है 

मैं उठकर माँ के कंधे पर हाथ रखता हूँ 

माँ बताती है कि-

"वह फावड़ा लेकर मुझे फिर मारने आ रहा है।

मैं उसे कह रही हूँ-

आ गैबी !

आज मेरे दोनों बेटे यहीं हैं 

इनके सामने मार मुझे!"

मैं चुपचाप सुनता हूँ 

सारी बात बुत की तरह 

कुछ नहीं कह पाता।

माँ भी चुप हो जाती है 

उसे थोड़ी देर  बाद उठना है 

मैं झूठमूठ सोने का बहाना करता हूँ 

मुझे भी सुबह उठते ही ड्यूटी जाना है ।

________________________________

हवा के साथ चलना ही पड़ेगा 

हवा के साथ चलना ही पड़ेगा 

मुझे घर से निकलना ही पड़ेगा ।


मेरे लहजे में है तासीर ऐसी,

कि पत्थर को पिघलना ही पड़ेगा।


पुराने हो गए किरदार सारे,

कहानी को बदलना ही पड़ेगा।


तुम्हीं गलती से दिल में आ गये थे,

तुम्हें बाहर निकलना ही पड़ेगा।


वो जो मंज़िल को पाना चाहता है,

उसे काँटों पे चलना ही पड़ेगा।

_________________________________________

विजय राही 

जन्म: 3 फ़रवरी 1990

रचनाएँ: हंस, पाखी, तद्भव, मधुमती, सदानीरा, कथेसर आदि में कविताएँ प्रकाशित।

सम्मान एवं पुरस्कार: दैनिक भास्कर का राज्य युवा प्रतिभा खोज प्रोत्साहन पुरस्कार,2018

क़लमकार मंच का राष्ट्रीय कविता पुरस्कार (द्वितीय),2019

सम्प्रति राजस्थान सरकार में शिक्षक। 


लोकप्रिय पोस्ट