गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

अशोक शाह

रोटियों की शक्ल बदल गयी है

कैसा अटूट रिश्ता है
द्रव्य और समय का 
धरती पर हमेशा देखे गये सम्पूरक 
समय ने संभाल रखा है द्रव्य को
न जाने कितने रूप बनते-बिगड़ते 
नये से पुराने, फिर नये होते 
और द्रव्य की सतह पर रेंगता समय 
खोजता रहता खोई कोई शक्ल

कितनी अजीब बात है

मैं बैठा रह गया था लकड़ी की बेंच पर

जब ट्रेन निकल गयी थी
पहुँचा है समय फिर ट्रेन लेकर
आज सीमेंट की बेंच पर बैठा 
मोबाइल से पूछ रहा हूं
मंडी में कितने भाव बिके अनाज

तब बाज़ार से कोई भूखा नहीं लौटता
आज बाज़ार में भूख बिक रही है
माउंट एवरेस्ट पर चढ़ गए हैं लोग
खेतों की नमी हिमालय में जम गयी  है
समय तब भी था
समय अब भी है
सिंक-सिंक कर रोटियों की शक्ल बदल गयी है
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हर तीसरा आदमी अस्वस्थ है

सहमती सकुचाती उतरती धरती पर
सूर्य की प्रथम किरण की तरह
पहला आदमी एकदम स्वस्थ था

दूसरे आदमी का मन हुआ अस्वस्थ
विचार फैलते गए
भूमंडल- वायुमंडल में

तीसरा आदमी अस्वस्थ है
मन से, शरीर से
जो भी आता उसके संपर्क में
हो जाता अस्वस्थ : पौधे और जीव

आज धरती पर वे ही बचे हैं स्वस्थ -
पानी की बूंद
हवा का झोंका
वृक्ष और पशु
जो आदमी के संपर्क में नहीं हैं
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मेरे जूते का रंग काला है


क्यों बहुत गर्व है ख़ुद पर
पढ़ा,लिखा पुरुष हूँ 
मेरा नाम कुछ अलग है
विचार ज़रा विशिष्ट?

मुझसे बुरे बहुत
इसलिए अच्छा हूँ बहुत
मेरी ख़ास रुचि
अपनी पहचान के अनुरूप
मेरी तारीफ़ के पुल ऊँचे हैं
बाकी सब ओछे हैं

घर में कालीन है
छवि है कुलीन

मेरे लोभ पर मत जाइए
थोड़ी इर्ष्या तो होती है औरों से
झूठ को आपने ही चलाया 
आटे में नमक-सा

पर कहे देता हूँ
औरों की तरह हूँ नहीं
दुनियादारी तो निभानी है
दूध का धुला नहीं
पर दूध का जला हूँ
समझौतावादी नहीं हूँ
पर छाछ फूँक-फूँक कर पीता हूँ

मेरी क्या गलती है
समय ही बदल गया 
शुरू में तो हीरा था
अभी ताबीज़ हो गया 

डर जमा मेरे भीतर
फिर भी साहसी बहुत
अपनी कमजोरियों से सिले हैं
रंग-रंग के झंडे बहुत

कहता जरूर हूँ
परवाह नहीं है उनकी
पर जो दिखाया रास्ता
उस लीक से हटा भी नहीं

पर क्यों सोचता
मैं क्या हूँ
जिन्हें आज रखा सहेज
कल उन्हीं से था परहेज

मेरा क्या है अपना
साथ रहा सिर्फ सपना
मरने से ठीक पहले तक
जिस खाट पर लेटा था
एकटक उसे देख रहा
वह मेरा ही बेटा था

पर तुलनात्मक गर्व से
तना हुआ चेहरा था
जो लिया था बाहर से, उन पर
समाज का सख्त पहरा था

फिर भी मैं समझदार हूँ
मेरे जूते का रंग काला है
_________________________________

एक बड़े लेखक से अनुरोध करते 


मैंने फिर दुहराया
कुछ लिख दो

उनकी आँखें ख़ाली
दिल सुन्न
और होंठ सूख गये

तभी देखा शून्य में
तितलियों को
अपने नन्हें परों से
आकाश को चीरते हुए

मैंने अपनी कलम उठा ली
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आख़िरी कविता

सूरज ने लिखी जो ग़ज़ल
वह धरती हो गई

धरती ने जो नज़्म कहा
नदी बन गयी

नदी-मिट्टी ने मिलकर 
लिख डाले गीत अनगिन
 
होते गए पौधे और जीव

इन सबने मिलकर लिखी 
वह कविता आदमी हो गई

धरती को बहुत उम्मीद है 
अपनी आखिरी कविता से
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अशोक शाह
जन्म: 11 जनवरी 1963
शिक्षा: आईआईटी कानपुर एवं आईआईटी दिल्ली, 
एक वर्ष भारतीय रेलवे इंजीनियरिंग सेवा, तदोपरांत 1990 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में विभिन्न पदों पर कार्यभार सँभाला|

रचनाएँ: कविता-संग्रह - माँ के छोटे घर के लिए, उनके सपने सच हों, समय मेरा घर है, समय की पीठ पर हस्ताक्षर है दुनिया, समय के पार चलो,पिता का आकाश, जंगल राग, अनुभव का मुँह पीछे है, ब्रह्माण्ड एक आवाज़ है, कहानी एक कही हुई, जब बोलना ज़रूरी हो, उसी मोड़ पर, उफ़क़ के पार(उर्दू)
कहानी-संग्रह: अजोर 
सम्पादन: मध्यप्रदेश की जनजातियों के जीवन, पारम्पर, बोलियों, लोक कथाओं, लोकगीतों एवं संस्कृति के संरक्षण पर आधारित 15 पुस्तकों का सम्पादन|
दर्शन: Total Eternal Reflection
पुरातत्व: The Grandeur of  Granite: the temples of Vyas Bhadora, Vintage Bhopal, 
Ashapuri, The Cradle of  Paramara and Pratihara Art, Temple Unveiled
देश की लगभग सभी पत्र- पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ प्रकाशित। लघु पत्रिका 'यावत्'
 का संपादन ।


प्रीति तिवारी के सौजन्य से 

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2024

चंद्रकांत देवताले

रचना  प्रक्रिया के पूर्व

ख़ाली हाथ और भरे मन 

रेत के ऊपर 

आकाश के नीचे

कोहरे की नदी में

चित लेटे हुए

मैं सूर्य माँगता हूँ 

मुझे बर्फ़ मिलती है

सिर्फ़ वही शब्द नहीं मिलता 

सिर्फ़ वही क्षण नहीं मिलता 

शेष समय की भट्टी में

अतिरिक्त सैकड़ों शब्द फेंकता हूँ

सिर्फ़ वही जगह छूटती है 

जहाँ कुछ हो सकता हूँ 

वैसे फेंकता हूँ अपने को 

शहरों के बीच

सड़कों पर 

लोगों के भीतर|

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अंतिम दिन की अनुभूति

उस दिन हर सूरज उगेगा

और मैं अपने को और अधिक नहीं जानूँगा,

कच्चे बादल-सा तकिया 

पिघलते बर्फ़-सा बिस्तर

कितने अनंत सिमट आएँगे आँखों में

सिर्फ़ अंतिम बार देख लेने के लिए 

ठूँठे नीम पर टिके नंगे आसमान को 

एक क्षण के लिए सब कुछ बेहद उजाला हो जाएगा 

और एक अंतहीन सड़क का सिलसिला 

आँखों में उतरता जाएगा 

और जब गुलमोहर के नीचे गुलाबी साड़ी में रोती हुई 

लड़की का दृश्य आकर आँखों में अटक जाएगा

तब मुझ पर अपनी कविताओं के 

चिंदे बरसने लगेंगे

और मैं आंसूं की बूँद भाप बन जाऊँगा ....

समुद्र प्रार्थना-सा बिछा रह जाएगा

मैदानों के कलेजे सुन्न पड़ जाएँगे

सिर्फ़ जलते रहेंगे पहाड़ 

और उनमें उठती हुई लपटों की परछाईं

पृथ्वी पर छा जाएगी.........

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शब्दों की पवित्रता के बारे में 

रोटी सेंकती पत्नी से हँसकर कहा मैंने 

अगला फुलका चन्द्रमा की तरह बेदाग़ हो तो जानूँ

उसने याद  दिलाया बेदाग़ नहीं होता कभी चन्द्रमा

तो शब्दों की पवित्रता के बारे में सोचने लगा मैं

क्या शब्द रह सकते हैं प्रसन्न या उदास केवल अपने से

वह बोली चकोटी पर पड़ी कच्ची रोटी को दिखाते

यह है चन्द्रमा जैसी, दे दूं इसे क्या बिना ही आँच दिखाए

अवकाश में रहते शब्द शब्दकोश में टँगे

नंगे अस्थिपंजर

शायद यही है पवित्रता शब्दों की 

अपने अनुभव से हम नष्ट करते हैं 

कौमार्य शब्दों का 

तब वे दहकते हैं और साबित होते हैं 

प्यार और आक्रमण करने लायक़

मैंने कहा सेंक दो रोटी तुम बढ़िया कड़क 

चुन्दड़ी वाली

नहीं चाहिए मुझको चन्द्रमा जैसी |

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 माँ पर नहीं लिख सकता कविता 

माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता 

अमर चिऊँटियों का एक दस्ता 

मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है 

माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी दो चुटकी आटा डाल देती है 

मैं जब सोचना शुरू करता हूँ 

यह किस तरह होता होगा 

घट्टी पीसने की आवाज़ 

मुझे घेरने लगती है 

और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हूँ 


जब कोई भी माँ छिलके उतारकर 

चने, मूंगफली या मटर के दाने 

नन्हीं हथेलियों पर रख देती है 

तब मेरे हाथ अपनी जगह पर 

थरथराने लगते हैं 

माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए 

देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे 

और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया 


मैंने धरती पर कविता लिखी है 

चन्द्रमा को गिटार में बदला है  

समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया 

सूरज को कभी भी कविता लिख दूंगा 

माँ पर नहीं लिख सकता कविता |

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औरत 

वह औरत 

आकाश और पृथ्वी के बीच 

कब से कपड़े पछीट रही है,


पछीट रही है शताब्दियों से

धूप के तार पर सुखा रही है,

वह औरत आकाश और धूप और हवा से 

वंचित घुप्प गुफा में 

कितना आटा गूँथ रही है?

गूँथ रही है मनों सेर आटा 

असंख्य रोटियाँ

सूरज की पीठ पर पका रही है


एक औरत 

दिशाओं के सूप में खेतों को 

फटक रही है 

एक औरत 

वक्त की नदी में 

दोपहर के पत्थर से 

शताब्दियाँ हो गयीं 

एड़ी घिस रही है,

एक औरत अनंत पृथ्वी को 

अपने स्तनों में समेटे 

दूध के झरने बहा रही है,

एक औरत अपने सिर पर

घास का गट्ठर रख

कब से धरती को 

नापती ही जा रही है,


एक औरत अँधेरे में 

खर्राटे भरते हुए आदमी के पास

निर्वासन जागती

शताब्दियों से सोयी है,


एक औरत का धड़

भीड़ में भटक रहा है

उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं

उसके पैर 

जाने कब से 

सबसे

अपना पता पूछ रहे हैं|

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चंद्रकांत देवताले 

जन्म: 7 नवम्बर, 1936
मृत्यु: 14 अगस्त, 2017

रचनाएँ: कविता-संग्रह-
हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ, भूखंड तप रहा है, आग हर चीज़ में बताई गई थी, बदला बेहद महंगा सौदा, पत्थर की बेंच, उसके सपने, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय, जहाँ थोड़ा सा सूर्योदय होगा, पत्थर फेंक रहा हूँ
आलोचना-मुक्तिबोध(कविता और जीवन विवेक) 
सम्पादन- दूसरे-दूसरे आकाश, डबरे पर सूरज का बिम्ब
अनुवाद- पिसाटी का बुर्ज(मराठी से अनुवाद)

सम्मान एवं पुरस्कार:
साहित्य अकादमी पुरस्कार, कविता समय सम्मान, पहल सम्मान, भवभूति अलंकरण, शिखर सम्मान, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, सृजन भारती सम्मान|


गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

अरुणाभ सौरभ

 इतिहास पुरुष जैसा

काले आखरों की अंतहीन 

उलझी दीवार फांदकर 

बाहर आने की चाह

स्याह दुनिया में

प्रलाप छोड़ना चाहता है, वो

किताबों की दुनिया से

जो शायद कह ना पाया हो

(अधूरे विचार)

जो जिंदगी से पहले दफ्न हो गए

उसे पकाकर- सिंझाकर

निकालना चाहता है

आना चाहता है

पनियाल ख़ामोशी में

क़ब्र की मिट्टियों में 

हौले-हौले

होती है सुगबुगाहट 

आता है धीरे-धीरे

कब्रिस्तान से

साथ में मुर्दों की फौज 

देखता है जीते जागते इन्सानों की कमीनगी

दुर्गंध देती

लिजलिजी-चिपचिपी दुनिया

अर्थ-विकास-समाज-तंत्र

भागता है कदम

फिर उसी कब्रिस्तान में

जहाँ से आया था

कि दूर से गूंजती है-

नारे की कतार

गड़ासा-भाला- तलवार की

साँय-साँय-साँय

" निकलो ",  " बाहर निकलो " की चिल्लाहट

कि सबके सब

मुर्दों के साथ

वह भी ज़ोर से चीखती है

" हमें अंदर ही रहने दो

हम यहीं हैं- तो ठीक हैं "

वो चीखता है

 चीखता ही रह रह जाता है

इतिहास पुरुष जैसा कोई एक


पर प्रेतों की आवाज़ है

जो इन्सानों से ऊंची 

कभी हो ही नहीं सकती...

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नींद और कविता

जैसे अन्न 

भूख के लिए

नदी पानी के लिए 

पानी ज़िंदगी के लिए

तुम्हारी बांहे

सुकून के लिए

तुम कविता के लिए


रात नींद के लिए 

नींद रात के लिए

वैसे हमारी सभ्यता के लिए

नींद और कविता 

सबसे निर्दोष कोशिश है...

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आद्यनायिका

(एक अंश)

स्वर्ण महलों,

अट्टालिकाओं वाला पाटलिपुत्र

जिसके

शौर्य का गीत

सुनाकर नट्टनियाँ नृत्य करतीं थीं

धम्म महामात्रों-ब्राह्मणों के 

किन्सक-अहिंसक संघर्ष का

पाटलिपुत्र


न्यायाधिकारियों

श्रमणों

राजुकों वाला पाटलिपुत्र

उत्तर में गंगा

दक्षिण में विन्ध्य से लेकर

समूचा कलिंग

पूर्व में चंपा

पश्चिम में सों

और 

राजगृह का कालांतरित रूप 

पाटलिपुत्र


उद्यानों,

निकुंजों,

विहारों वाला

पाटलिपुत्र

दार्शनिकों,

विदूषकों,

विद्वानों की शरणस्थली

और सम्राट अशोक के 

शौर्य-विजय

और कुशल शासन की

लहरती ध्वज-पताकाएँ

जिस नगर में सूर्य तब अस्त होता था

जब पाटलिपुत्र 

स्वयं चाहता हो


असंख्य विजयी अश्वों की 

हिनहिनाहट से काँपता नगर

अनेक वंशों के 

अभिमान  और टकराहट 

से ध्वस्त

असंख्य साम्राज्यों के

बनते-बिगड़ते 

इतिहास का साथी

विश्व का प्राचीनतम और ऐतिहासिक 

एक नगर

इतिहास में ही 

सिमटकर खो गया 

अन्यथा

सभ्यता की प्राचीनता और भव्यता में 

एथेंस-रोम कहाँ टिक पाता

 पाटलिपुत्र के आगे 

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उस वसंत के नाम 

 वो वसंत की सरसराहट मुझे याद है

जिसमें कोयली कूक की जगह

कोयल की चोंच से खून टपका था

आम मंजर के धरती पर गिरने से

विस्फोट हुआ था

सरसों की टुस्सियों से बारूद बरसता था

और हवा में हर जगह

लाशों के सड़ने की गन्ध थी

झरने से रक्त की टघार

और शाम

शाम काली रोशनाई में लिपटी

एक क़िताबी शाम थी

रातों की दहशतगर्दी और सन्नाटे

कुत्तों की कुहू ...कू.......कुहू.... से टूटने थे

एकाएक सारे कुत्ते जोर-जोर से भौंकने लगे थे

एक-एक कर चीथड़े कर रहे थे

इन्सानी माँस के लोथड़े

कहीं हाथ, कहीं पैर, कहीं आँख, कहीं नाक

और हर जगह ख़ून

ख़ून ...ख़ू...न...ख़ू....ऊ...न

पानी की जगह ख़ून

एक वसंत के

रचने, बसने, बनने, गढ़ने, बुनने, धुनने की

क़िताबी प्रक्रिया से दूर...।

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चाय बागन की औरत 

उसे ये तो मालूम है

उसके नाज़ुक हाथों से तोड़ी गयी पत्तियों से

जागता है पूरा देश

तब जबकि हरियाली से भरपूर

असम के किसी भी चाय बगान में

आलस्य अपने उफ़ान पे होता है

और आलसी हवा से मुठभेड़ कर

झुंड-की-झुंड असमिया औरतें

निकली जाती है अलसुबह

पहले पहुंचना चाहती है

बंगालिन,बिहारिन और बंगलादेशी औरतों के

कि असम के हर काम-काज में

बाहरी लोगों ने आकार कब्ज़ा जमा लिया है

‘मोय की खाबो...?’

 

भूख से ज्यादा चिंता उसे भतार के देशी दारू,माछ-भात की है

जिसके नहीं होने पर गालियाँ और लात-घूसे

उसे इनाम में मिलेंगे

पर वो कहती है-

"मुर लोरा सुआलिहोत स्कूलोलोय जाबो लागे"1

पर कमाकर लाती है वो और

घर और मरद साला तो बैठ कर खाता है,

अनवरत पत्तियाँ तोड़ती रहती है वो चाय की

उसे ये नहीं मालूम कि चाय का पैकेट बनकर

कैसे टाटा-बिरला के और देशी-विदेशियों के

लगते हैं मुहर

 

उसे कितना प्यार मिला है

ये तो कोई नहीं बता सकता

कितनी रातें वो भूख से काटी है

कितनी अंगड़ाइयों में

इसका हिसाब-किताब उसका मरद भी नहीं जानता

चाय बागान ही उसका सबकुछ है

जिसमें पत्तियाँ तोड़ना

उसकी दिनचर्या है

असम की चाय से जागता है देश

जिसकी पत्तियों को तैयार करना

देश के संविधान लिखने जैसा है

तब जबकी चाय को राष्ट्रीय पेय

बनाया जा रहा है

और चाय बागान में उसके तरह की सारी औरतें

अपने सारे दुख बिसराकर

मशगूल अपने कामों में

मधुर कंठ से गा लेतीं है

कोई असमिया प्रेमगीत

जिस प्रेमगीत पर

हमेशा वज्रपात होता है

दिल्ली से

फिर भी गाती है

गाती ही रहती है

पत्तियाँ तोड़ते वक़्त

 

उसे हरियाली बचाने की पूरी तमीज़ है

उसे रंगाली बीहू आते ही अंग-अंग में थिरकन होती है

उसे मेखला पहन घूमने की बड़ी इच्छा होती है

उसे अपने असम से बहुत प्यार है...


1. मेरे बच्चे को स्कूल जाना चाहिए

________________________________________

अरुणाभ सौरभ

जन्म: 9 फरवरी 1985

शिक्षा: एम.ए., नेट, पीएच.डी..

रचनाएँ: दिन बनाने के क्रम में(भारतीय ज्ञानपीठ), आद्यनायिका, लम्बी कविता का वितान(आलोचना), एतबे टा नहि, तें किछु आर(मैथिली कविता संग्रह), मैथिली, असमिया कविताओं का अनुवाद,कन्नड़ के वचन साहित्य का अनुवाद  

पुरस्कार एवं सम्मान: भारतीय ज्ञानपीठ का 'नवलेखन पुरस्कार', साहित्य अकादमी का 'युवा पुरस्कार', महेश स्मृति ग्रन्थ पुरस्कार, महेश अंजुम स्मृति युवा कविता सम्मान, आदि|

सम्प्रति: सहायक प्राध्यापक, हिंदी, एन सी ई आर टी


गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

शान्ति सुमन

     आग बहुत है

भीतर-भीतर आग बहुत है

बाहर तो सन्नाटा है|


सड़कें सिकुड़ गईं हैं भय से 

देख खून की छापें

दहशत में डूबे हैं पत्ते 

अन्धकार में काँपे

किसने है यह आग लगाई

जंगल किसने काटा है|


घर तक पहुँचानेवाले वे

धमकाते हैं राहों में

जाने कब सींगा बज जाए 

तीर मन बाहों में

कहने को है तेज रोशनी 

कालिख को ही बाँटा है|


कभी धूप ने, कभी छाँव ने

छीनी है कोमलता 

एक करोटन वाला गमला 

रहा सदा ही जलता

खुशियों वाले दिन पर लगता 

लगा किसी का चांटा है|

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धार की मछलियाँ 

थरथराती टहनियां हैं 

हिल रहे हैं पेड़|


एक चर्चा, एक अंदेशा

बीतते दिन का

और चिड़िया ने सहेजा 

एक नया तिनका

धार की ये मछलियाँ हैं

लहर लेती हैं घेर|


बूँद जैसे दबी हो भीतर

कहीं इस रेत में

फसल जैसे सूखती हो

भरे सावन खेत में

सूर्यमुख ये फुनगियाँ हैं

रही जल को टेर|


दुःख हो गए इतने बड़े 

हम हो गए छोटे

शहर जाकर गाँव को हम

फिर नहीं लौटे

किसी ने पूछा नहीं है

समय का यह फेर|

_____________________________________________

गुनगुन करने लगे हैं दिन 

चिट्ठी की पांति से खुलने लगे हैं दिन,

सर्दियाँ होने लगी हैं और कुछ कमसिन |


दोहे जैसी सुबहें

रुबाई लिखी दुपहरी,

हवा खिली टहनी-सी

खिड़की के कंधे ठहरी,

चमक पुतलियों में फिर भरने लगे हैं दिन,

नीले कुहासे तनके हुए आंचल पर पिन|


कत्थई गेंदे की 

खुशबू से भींगी रातें,

हल्का मादल जैसे 

लगी सपन को  पांखें,

ऋतू को फिर गुनगुने करने लगे है दिन,

उजाले छौने जैसे रखते पाँव गिन-गिन|


सूत से लपेट धूप को 

सहेजकर जेबों में,

मछली बिछिया बजती

पोखर के पाजेबों में,

हाथ में हल्दी-गुण करने लगे है दिन,

सांझ जलती आरती-सी हुई तेरे बिन|

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एक रचाव है नदी

पन्ने लहरों के बदलती हुई

एक किताब है नदी|


किनारों को आँखों से बाँधती

उतरती है पहाड़ों से 

चिड़िया के पंखों को सहेजती

मन बसी है कहारों के

हवाओं में रंग घोलती हुई 

एक लगाव है नदी|


महाभारत से निकली रोकती

भीष्म के उन वाणों को 

खूब आँखों से भी तेज करती 

रहती है जो कानों को

गहनों को फिर से तोलती हुई

एक जवाब है नदी|


साँसों में गीतों को गूँथेगी

भरती कविता की जगहें 

बचपन के मन को सँभालती-सी

छूती कई अटल सतहें

अनबोली-सी भी बोलती हुई

एक रचाव है नदी|

_______________________________________ 

नयी बात नहीं

शव किसी युवती का है

इसलिये भीड़ है देखने वालों की 

उठानेवालों की नहीं

एक दूसरे का मामला बताकर

गाँव और रेलपुलिस का टालमटोल

कोई नई बात नहीं

जहाँ वह मिली है गटर में

वहाँ सैकड़ों किस्सों के सैकड़ों मुँह   

लिखी है जाने कितनी कहानियाँ 

उसके सिरहाने पैताने 

उसकी आत्मा में ईश्वर नहीं था

या उसकी आत्मा तक नहीं गया ईश्वर 

वह सिर्फ़ देह थी, देह के साथ रही

देह लेकर मर गई

मनुष्य होने की आदिम परिभाषा

पर भी पत्थर रख गई |

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जन्म तिथि :  १५ सितम्बर १९४२

शिक्षा : एम.ए., पीएच.डी.

पूर्व विभागाध्यक्ष, हिंदी विभाग, म.द. म. महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर

रचनाएँ : गीत संग्रह - ओ प्रतीक्षित, परछाईं टूटती, सुलगते पसीने, पसीने से रिश्ते, मौसम हुआ कबीर, तप रहे कचनार, भीतर-भीतर आग, मेघ इन्द्रनील(मैथिलि), पंख-पंख आसमान (एक सौ एक चुने हुए गीतों का संग्रह), समय चेतावनी नहीं देता, एक सूर्य रोटी पर; उपन्यास : जल झुका हिरन

आलोचना : मध्यवर्गीय चेतना और हिंदी का आधुनिक काव्य

सम्पादन : सर्जना, अन्यथा, भारतीय साहित्य, कंटेम्पररी इंडियन लिटरेचर (दिल्ली), बीज(पटना), देश की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित एवं अनेक आकाशवाणी तथा दूरदर्शन केन्द्रों से प्रसारित.

सम्मान एवं पुरस्कार : बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना से साहित्य सेवा सम्मान, हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग से कवीरत्न सम्मान, राज भाषा विभाग, बिहार राज्य से महादेवी वर्मा सम्मान, अवंतिका, दिल्ली द्वारा विशिष्ट साहित्य सम्मान, मैथिलि साहित्य परिषद् द्वारा विद्या वाचस्पति सम्मान, हिंदी पगति समिति द्वारा भारतेंदु सम्मान, नारी सशक्तिकरण के उपलक्ष्य में सुर्गामा-सम्मान, विन्ध्य प्रदेश का साहित्य मणि सम्मान आदि    

 


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