रचना प्रक्रिया के पूर्व
ख़ाली हाथ और भरे मन
रेत के ऊपर
आकाश के नीचे
कोहरे की नदी में
चित लेटे हुए
मैं सूर्य माँगता हूँ
मुझे बर्फ़ मिलती है
सिर्फ़ वही शब्द नहीं मिलता
सिर्फ़ वही क्षण नहीं मिलता
शेष समय की भट्टी में
अतिरिक्त सैकड़ों शब्द फेंकता हूँ
सिर्फ़ वही जगह छूटती है
जहाँ कुछ हो सकता हूँ
वैसे फेंकता हूँ अपने को
शहरों के बीच
सड़कों पर
लोगों के भीतर|
_____________________________________
अंतिम दिन की अनुभूति
उस दिन हर सूरज उगेगा
और मैं अपने को और अधिक नहीं जानूँगा,
कच्चे बादल-सा तकिया
पिघलते बर्फ़-सा बिस्तर
कितने अनंत सिमट आएँगे आँखों में
सिर्फ़ अंतिम बार देख लेने के लिए
ठूँठे नीम पर टिके नंगे आसमान को
एक क्षण के लिए सब कुछ बेहद उजाला हो जाएगा
और एक अंतहीन सड़क का सिलसिला
आँखों में उतरता जाएगा
और जब गुलमोहर के नीचे गुलाबी साड़ी में रोती हुई
लड़की का दृश्य आकर आँखों में अटक जाएगा
तब मुझ पर अपनी कविताओं के
चिंदे बरसने लगेंगे
और मैं आंसूं की बूँद भाप बन जाऊँगा ....
समुद्र प्रार्थना-सा बिछा रह जाएगा
मैदानों के कलेजे सुन्न पड़ जाएँगे
सिर्फ़ जलते रहेंगे पहाड़
और उनमें उठती हुई लपटों की परछाईं
पृथ्वी पर छा जाएगी.........
__________________________________________
शब्दों की पवित्रता के बारे में
रोटी सेंकती पत्नी से हँसकर कहा मैंने
अगला फुलका चन्द्रमा की तरह बेदाग़ हो तो जानूँ
उसने याद दिलाया बेदाग़ नहीं होता कभी चन्द्रमा
तो शब्दों की पवित्रता के बारे में सोचने लगा मैं
क्या शब्द रह सकते हैं प्रसन्न या उदास केवल अपने से
वह बोली चकोटी पर पड़ी कच्ची रोटी को दिखाते
यह है चन्द्रमा जैसी, दे दूं इसे क्या बिना ही आँच दिखाए
अवकाश में रहते शब्द शब्दकोश में टँगे
नंगे अस्थिपंजर
शायद यही है पवित्रता शब्दों की
अपने अनुभव से हम नष्ट करते हैं
कौमार्य शब्दों का
तब वे दहकते हैं और साबित होते हैं
प्यार और आक्रमण करने लायक़
मैंने कहा सेंक दो रोटी तुम बढ़िया कड़क
चुन्दड़ी वाली
नहीं चाहिए मुझको चन्द्रमा जैसी |
________________________________
माँ पर नहीं लिख सकता कविता
माँ के लिए संभव नहीं होगी मुझसे कविता
अमर चिऊँटियों का एक दस्ता
मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है
माँ वहाँ हर रोज़ चुटकी दो चुटकी आटा डाल देती है
मैं जब सोचना शुरू करता हूँ
यह किस तरह होता होगा
घट्टी पीसने की आवाज़
मुझे घेरने लगती है
और मैं बैठे-बैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हूँ
जब कोई भी माँ छिलके उतारकर
चने, मूंगफली या मटर के दाने
नन्हीं हथेलियों पर रख देती है
तब मेरे हाथ अपनी जगह पर
थरथराने लगते हैं
माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए
देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे
और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया
मैंने धरती पर कविता लिखी है
चन्द्रमा को गिटार में बदला है
समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया
सूरज को कभी भी कविता लिख दूंगा
माँ पर नहीं लिख सकता कविता |
________________________________________
औरत
वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है,
पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है,
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूँथ रही है?
गूँथ रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है
एक औरत
दिशाओं के सूप में खेतों को
फटक रही है
एक औरत
वक्त की नदी में
दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गयीं
एड़ी घिस रही है,
एक औरत अनंत पृथ्वी को
अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है,
एक औरत अपने सिर पर
घास का गट्ठर रख
कब से धरती को
नापती ही जा रही है,
एक औरत अँधेरे में
खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वासन जागती
शताब्दियों से सोयी है,
एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं
उसके पैर
जाने कब से
सबसे
अपना पता पूछ रहे हैं|
______________________________________
चंद्रकांत देवताले
जन्म: 7 नवम्बर, 1936
मृत्यु: 14 अगस्त, 2017
रचनाएँ: कविता-संग्रह-
हड्डियों में छिपा ज्वर, दीवारों पर खून से, लकड़बग्घा हँस रहा है, रोशनी के मैदान की तरफ, भूखंड तप रहा है, आग हर चीज़ में बताई गई थी, बदला बेहद महंगा सौदा, पत्थर की बेंच, उसके सपने, इतनी पत्थर रोशनी, उजाड़ में संग्रहालय, जहाँ थोड़ा सा सूर्योदय होगा, पत्थर फेंक रहा हूँ
आलोचना-मुक्तिबोध(कविता और जीवन विवेक)
सम्पादन- दूसरे-दूसरे आकाश, डबरे पर सूरज का बिम्ब
अनुवाद- पिसाटी का बुर्ज(मराठी से अनुवाद)
सम्मान एवं पुरस्कार: साहित्य अकादमी पुरस्कार, कविता समय सम्मान, पहल सम्मान, भवभूति अलंकरण, शिखर सम्मान, माखनलाल चतुर्वेदी कविता पुरस्कार, सृजन भारती सम्मान|