गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

योगेश कुमार ध्यानी

1. शीत युद्ध 


लपटों के बाद
जल कर राख हो गई

ठंडी चीज़ों की भस्म
बैठ जाती है नागरिकों के हृदय में,

बारूद की गंध
ठंडी होकर जम जाती है स्मृतियों में

ग्रीष्म, शरद, वसंत
एक-एक कर बीत जाती हैं ॠतुएँ,

बस स्मृति नहीं बीतती
बीत गए युद्ध की चीख़ों की।
____________________________________

2. ह्रस्व-दीर्घ 


तीव्र है चीख़
बधिर हैं गुज़र रहे लोग

न के बराबर है उम्मीद
हाँ जितनी संभव है मृत्यु

जानलेवा हो सकते हैं शत्रु के वार
बचाव के पक्ष मे है सिर्फ़ दिन की धूप

लौटते ही जिसके
झुरमुट हो जाते हैं संवेदनशील

जहाँ संवेदनशून्यता
सभ्यता के करती है चीथड़े

और पुलिस की टार्च बढ़ जाती है
“सब ठीक है” का बिगुल बजाते हुए आगे

भाषा पंगु होती है
वहशियत के आगे

दीर्घ होती है वारदात
और हृस्व रह जाती है

कोई भी सद्भावना।
____________________________________

3. छूटा हुआ ईश्वर 


उपासना से छूट गई जगहों मे
रहता है

एक छूटा हुआ ईश्वर,
उसका ज़िक्र किसी ग्रंथ में नहीं।

एक वही सुनता है सिर्फ़
भीड़ मे से छूट गए

लोगों की पुकार।
____________________________________

4. समुद्र  


उपस्थिति को ढका जा सकता है
उसपर परदा डाला जा सकता है
उसे अनदेखा किया जा सकता है

लेकिन अनुपस्थिति को कैसे भरें
वह जो 
तमाम दियों, सजावटों और 
झालरों के बीच से 
झांकती रहती है
जब भी कौंधता है फुलझड़ी का प्रकाश
उस प्रकाश में झिलमिलाती है
अनुपस्थिति

इस पर्व
जो खदानों में रह गए 
गाँव से दूर
मालिक के मुनाफे के बाद
शहर की दुकानों के बंद शटर के पीछे
फर्श पर बिछे टाट पर रह गए
जो समुद्रों में रह गए
जो नाव और जहाज में रह गए

जो लौट नहीं सके
जो रास्तों में रह गए
और वो भी
जो लौटने का साहस नहीं जुटा सके
उनके पर्व में कौंध रही है
अपनों की अनुपस्थिति
जबकि उनके घरों में
हर्षोल्लास बधाइयों और 
पर्व की आवाज़ों के बीचों-बीच 
बैठी है उनकी खुद की 
अनुपस्थिति की आवाज़ 

उपस्थिति को ढका जा सकता है
लेकिन अनुपस्थिति को
भरा नहीं जा सकता।
____________________________________

5. इक कमरा है बिखरा-सिमटा


इक कमरा है बिखरा-सिमटा
चार दीवारें गहरी हल्की
इक दरवाज़ा हिलता-डुलता
एक सींखचों वाली खिड़की

एक बल्ब है जलता-बुझता
एक ही नल से पानी चलता
थप-थप बनती चार रोटियाँ
रोज़ सांझ एक चूल्हा जलता

एक कील पर टंगा कलैंडर 
एक मूर्ति का पूजाघर
एक खूंटी पर बस दो कपड़े
पहन लिए जाते जो तड़के

कोने में एक जोड़ी चप्पल
कुर्सी पर रखा एक गमछा
एक चमड़े का बैग पुराना
जिसमें कोई नहीं खजाना

बीती होली आई दीवाली
सोच रहा है घर जाएगा 
लेकिन इस आने-जाने में
कितना पैसा लग जाएगा 

गाँव में रहते बीवी-बच्चे
मजदूरी में कटता जीवन
शहर की एक गुमनाम गली के
घर में रहता राम सजीवन।
____________________________________

योगेश कुमार ध्यानी 










 




योगेश कुमार ध्यानी जन्म 3 सितंबर 1983 को हुआ। योगेश पेशे से मरीन इंजीनियर हैं, साहित्य में गहरी रुचि रखते हैं। हंस, वागर्थ, आजकल, परिंदे, कादंबिनी, कृति बहुमत, देशधारा, अन्वेषा, ईरा पत्रिका, शतरूपा अनुनाद, कृत्या, मलोटा फॉक्स, कथांतर-अवांतर आदि साहित्यिक वेबसाइट और पत्र- पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ-कहानियाँ और लेख प्रकाशित होते रहे हैं । 2022 में समुद्र जीवन पर आधारित कविता संग्रह 'समुद्रनामा' प्रकाशित हुई। 

संपर्क - 9336889840
ईमेल: yogeshdhyaani85@gmail.com


गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

सुशोभित

 1. शुरुआतें 


शुरुआतें कितनी सुंदर होती हैं
रूई से भरी, भरी वनघासों से

संभावनाओं में उतरातीं डूबतीं
मुझे ख़ंजरों से भय नहीं लगता

छज्जे से गिरने से नहीं साँप के ज़हर से नहीं
मैं डरता हूँ चीज़ों के बासी हो जाने से

हरेक उत्सुक शुरुआत के बाद
मर जाने का मतलब

ठहर जाना था
जीवित रहने का अर्थ था
उम्रदराज़ हो जाना

जीने की ये मियाद मुझको मायूस करती
कि इतना लंबा भी क्या जीना!

मुझे एक शहर नहीं चाहिए
मुझे चाहिए एक कमरा

आकाश नहीं चाहिए
चाहिए एक खिड़की

जंगल नहीं पांखुरी
समुद्र नहीं अंजुरी
____________________________________

2. किताब में गुलाब


हाथ
गुलाब भी हो सकते हैं।

हथेलियाँ
किताब भी हो सकती हैं।

तुम मेरे हाथों को
अपनी हथेलियों में

छुपा लो।
____________________________________

3. ज्वार में वर्षा 


रक्‍त में तैरतीं
छतरियाँ और नावें!

ज्‍वर की
तपती हुई त्‍वचा पर

बारिश का चंद्रमा!
जब,

धमनियों में टूटता है
तिमिर के धनुष

की तरह।
तब,

जनवरी के
धूजते तलुओं पर

देखता हूँ—
मोम का आलता।
____________________________________

4. अविष्कार 


एक आदिम भय ने
ईश्वर को रचा था,

एक आदिम लालसा ने
प्यार को।

मनुष्य ने इनके बाद
फिर कोई बड़ा आविष्कार
नहीं किया!
____________________________________

5. तारतम्य के लिए


तारतम्य के लिए उसने
सब कुछ दाँव पर
लगा दिया।
जूतों, किताबों और विचारों को
एक तरतीब में जमाने
के लिए।
बिना इस बात को समझे कि—
जूते
यात्रा करने के लिए होते हैं
किताबें
सीने पर रखकर सोने के लिए
और विचार
ढाल बनाकर अपना निर्लज्ज बचाव
करने को!
____________________________________

सुशोभित














सुशोभित जी का जन्म 13 अप्रैल 1982 को मध्य प्रदेश के झाबुआ में हुआ। उनकी शिक्षा उज्जैन में संपन्न हुई। 'मैं बनूंगा गुलमोहर', 'मलयगिरी का प्रेत', 'धूप के पंख' आदि कविता संग्रह के साथ-साथ 'माया का मालकौंस', 'सुनो बकुल', 'गांधी की सुंदरता', 'बायोस्कोप', 'दूसरी क़लम', 'अपनी राम रसोई', 'आइंस्टीन के कान', 'बावरा बटोही', 'देखने की तृष्णा', 'पवित्र पाप', 'कल्पतरु' अन्य गद्य रचनाएँ प्रकाशित हैं। इन्हें 2020 में अपनी पुस्तक 'सुनो बकुल' के लिए 'स्पंदन युवा पुरस्कार' प्राप्त है। वर्तमान समय में सुशोभित जी 'अहा! जिंदगी' के सहायक संपादक के रूप में कार्यरत हैं।







गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

शचींद्र आर्य


1. अनुपस्थित


जो अनुपस्थित हैं,
वह कैसे हमें दिखाई देंगे, 
इसकी कोई तरकीब हमारे पास नहीं है।

ऐसा नहीं है, उनके न दिख पाने भर से 
उसके होने का भाव भी ख़त्म हो गया।
पर ज़रूरी है,

हम कभी महसूस कर पाएँ, जितने लोग दिख रहे हैं,
उससे कई गुना लोग, इन आँखों से नहीं दिख रहे हैं।

जैसे जितनी कविताएँ, कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र बना दिए गए,
उनसे कहीं अधिक उन मनों में अधबने या अधूरे ही रह गए।

जितनी किताबें छप सकीं,
उस अनुपात में बहुत 
बड़ी संख्या में वह कभी छप ही नहीं पाईं।

इसे मैं कुछ इस तरह देखता हूँ, जब हम नहीं थे,
यह समय ऐसे ही दिन को विभाजित करता रहा।

हमारे न होने से क्या वह अतीत शून्य हो गया?
कभी वह क्षण भी आएगा,

जब सामने होते हुए, कई लोग 
इस वर्तमान से भविष्य की तरफ़ चल देंगे।
 
उनका या हमारा आमने-सामने न होना, 
क्या हमें या उन्हें अनुपस्थित बना देगा?

जसे जब कविता नहीं लिख रहा था,
या कुछ भी नहीं कह रहा था, तब भी मैं था।

वह प्रक्रिया भी कहीं मन में, मेरे अंदर चल रही थी।
बिल्कुल ऐसे ही यहाँ कुछ भी अनुपस्थित नहीं था।
____________________________________

2. भाषा में बड़े हुए लड़के 


जिस भाषा में
लोग बस और लड़की के पीछे 
न भागने की हिदायतें देते हों,

हमें उन्हें क्या समझना चाहिए?
उन्होंने लड़कियों को भी बस बना दिया।

जिस तरह सड़कों पर बेतहाशा बसें दौड़ रही हैं,
वैसे ही एक लड़की के चले जाने पर
दूसरी लड़की आ जाने की कल्पना है।

हम भी इसी भाषा में बड़े हुए लड़के हैं,
हमें पता है, तपती हुई दोपहर 
में बस छोड़ देने का मतलब।
____________________________________

 3. पैमाने 


क्या हम अपनी उदासी को 
किसी तरह माप सकते हैं?
या कुछ भी, जिसे मन करे?

कहीं कोई क्या ऐसा होगा, 
जो हर चीज़ के लिए ऐसे पैमाने बना पाया होगा?
क्या वह हर भाव, क्षण, मनः स्थिति, घटना, अनुभूति,

उसके गुज़र जाने के बाद पैदा हुई 
रिक्तता, अतीत, भविष्य, कल्पना,
ईर्ष्या, कुंठा, भय, स्वप्न, गीत, 
स्वर, जंगल, सड़क, मिट्टी, हवा, स्पर्श

सबके लिए वह कुछ न कुछ
 तय करके गया होगा?
अपने अंदर देखता हूँ तो लगता है, 
बीतते दिन में आती शाम

और उसे अपने अंदर समा लेती 
रात ज़रूर कुछ बता जाती होगी।
मुझे भी वह सब जानना है।

लेकिन यह कैसे संभव होगा?
क्या यह हो सकता है, 
हम किसी भाषा के

सीमित शब्दों में असीमित संभावनाओं को समेटते चले जाएँ?
कभी लगता, इनके बजाय अगर वह 
कुछ युक्तियाँ बता सके, तो बेहतर होगा।

मैं ऐसे प्रेम करना चाहता हूँ, 
जिसे मैं भी ख़ुद न पहचान पाऊँ।
जिससे करूँ, वह मुझमें खुलता बंद होता रहे।

यह पानी और नदी जैसे होगा शायद। 
नहीं तो पेड़ और उसकी परछाईं जैसा।
चाहता हूँ, ऐसी ईर्ष्या जिससे करूँ,

जिसे वह उसे मेरा अनुराग समझे,
 लेकिन तह में यह भाव
किसी कुंठा की तरह मन में बनी हुई 
गाँठ की तरह उसे नज़र न आए।

इसी में कुछ ऐसे सपनों तक पहुँच जाना चाहता हूँ,
जो सपनों की तरह नहीं 
ज़िंदगी के विस्तार की तरह लगें।

उनमें रंग बिल्कुल गीले हो।
 उनसे मेरे हाथ रँग जाएँ।
शायद अब आप कुछ-कुछ
उन नए पैमानों की तासीर तक पहुँच पा रहे होंगे
और यह भी समझ पा रहे होंगे 
कि उनकी मुझे ज़रूरत क्यों है।

मैं अपनी सारी घृणा,
ईर्ष्या और सारे अप्रेम के साथ 
कुछ-कुछ ऐसा हो जाना चाहता हूँ।
____________________________________

4. चप्पल 

शहर के इस कोने से जहाँ खड़े होकर
इन जूतियों और चप्पलों वाले 
इतने पैरों को आते-जाते देख रहा हूँ,

उन्हें देख कर इस ख़याल से भर आता हूँ 
कि कभी यह पैर दौड़े भी होंगे?
किसी छूटती बस के पीछे,
बंद होते लिफ़्ट के दरवाज़े से पहले,
किसी आदमी के पीछे।

मेरी कल्पना में कोई दृश्य नहीं है,
जहाँ मैंने कमसिन कही जाने वाली लड़की,
किसी अधेड़ उम्र की औरत
और किसी उम्र जी चुकी बूढ़ी महिला 
को भागते हुए देखा हो।

ऐसा नहीं है वह भाग नहीं सकती, 
या उन्हें भागना नहीं आता।
बात दरअसल इतनी सी है,
जिसने भी उनके पैरों के लिए चप्पल बनाई है,
उसने मजबूती से नहीं गाँठे धागे।
पतली-पतली डोरियों से उनमें रंगत 

भरते हुए वह नहीं बना पाया भागने लायक़।
सवाल इतना सा ही है,
उसे किसने मना किया था, ऐसा करने से?
____________________________________

5. पता पूछने वाला 

मैंने हर अनजानी जगह पर लोगों को रोककर उनसे पता पूछा
इस उम्मीद में, शायद उन्हें पता हो, शायद वह बता सकें,

मैं गलत था
उनमें से किसी को कुछ नहीं पता था
कैसे उन जगहों तक पहुँचा जा सकता है, वह नहीं जानते थे
तब भी उंगलियों और अपनी जीभों को हिलाते हुए वह कह गए,

आगे से उनकी बताई जगहों पर 
पहुँच कर वह जगहें कभी नहीं मिली.
यह बात मैंने उन्हीं से सीखी,
कभी किसी को गलत रास्ता नहीं बताया,
नहीं पता था, कह दिया, नहीं पता,
जब पता होता,
तब हमेशा कोशिश की के जो मुझसे कुछ पूछ रहा है,
वह जल्दी से उस जगह पहुँच जाए। 
उन जगहों पर नहीं पहुँच पाने का एहसास मुझ में हमेशा बना रहा,
मुझे पता है, तपती धूप और ढलती शामों में 
भटकना कैसा होता है। 
हो पाता, तो मैं हर उस पता पूछने वाले के साथ चला जाता
जो साथ कभी मुझे नहीं मिला, थोड़ा उन्हें दे पाता। 
____________________________________

शचींद्र आर्य













शचींद्र आर्य का जन्म 9 जनवरी 1985 को दिल्ली में हुआ।इनकी कविताएँ हंस, पहल, वागर्थ, तद्भव, समकालीन भारतीय साहित्य, सदानीरा, हिंदवी आदि डिजिटल मंचों और पत्र-पत्रिकाओं में  प्रकाशित होती रही है। इनका एक कविता संग्रह 'कुतुबमीनार खड़े-खड़े थक गया होगा' और डायरी 'दोस्तोएवस्की का घोड़ा' पुस्तक रूप में आ गई हैं। शचींद्र आर्य जी को 'कुतुबमीनार खड़े-खड़े थक गया होगा' काव्य संग्रह के लिए 2025 का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त है । 
ईमेल- sachindrakidaak@gmail.com



लोकप्रिय पोस्ट