गुरुवार, 18 सितंबर 2025

गीता मलिक

1. मातृत्व

जैविक मातृत्व से भी बड़ा है
सृष्टि का मातृत्व
मेरे स्वप्न में आती है
वह गुलाम अफ्रीकी काली महिलाएँ
जो बेच दी गई कैरेबियाई द्वीपों अमेरिका और यूरोप के तमाम हिस्सों में
भर दी जाती थी पानी के जहाजों में इतने छोटे केबिनों में
जहाँ पैर फैलाने की जगह तक नहीं होती थी
लंबी यात्राओं में
मातृभूमि की स्मृति में
उन्हें याद रहता प्रतिपल
मोटे चावल का वही अफ्रीकी स्वाद
गुलाम औरतें जिन्हें जोत दिया गया यूरोपियन प्लांटेशन में
जहाँ विषम परिस्थितियों में भी उग आता था उनका धान
गुलाम औरतें संपत्ति के नाम पर मात्र स्मृति लेकर आई थी
पुरखों द्वारा अर्जित किए गए
पारंपरिक ज्ञान और अपनी स्मृति में रचे बसे
चावल के स्वाद को
उन्होंने हर जगह रोपा
जहाँ भी उन्हें रखा गया
 सृष्टि का मातृत्व कितना प्रबल था उनमें
जिसे बचाने के लिए
अफ्रीकी औरतें अपनी बेटियों के बालों में
गूँथ देती थी धान के बीज रात्रि में
इस भय से कि सुबह उन्हें बेच न दिया जाए
एक अजनबी मुल्क की मिट्टी में
और रसोई में
जिन्होंने फैला दी अपने स्वाद की खुशबू
और भर दिए उनकी संततियों के घर भंडार!

2. बूढ़ा नीम

कोई पहर है रात का
शायद तीसरा
घड़ी की टिक-टिक
एक पचपन
एक छप्पन…
निर्जन समय की चीत्कार
पानी की टिप-टिप
अँधेरे की सायँ-सायँ
बूढ़े नीम का स्याह तना
भीगे पत्तों की हरहराहट से भरा
देखता भौंचक, हैरान
मेरे दुख के हरेपन की काई को ओढ़े
मेरे पैरों की फिसलन को थामें
देखता रुग्णाई देह से
नीम मेरे पिता की तरह बूढ़ा हो गया है
मेरी माँ की झुर्रियाँ उभर आई हैं उसके तने में
मेरे हर्फ़ इन दिनों
उसकी पत्तियों की तरह झड़ रहे हैं
यहाँ-वहाँ बिखर रहे हैं हवा में
मैं देख रही हूँ नंगी आँखों से
दिशाहीन समय की अनियमित्ता को भागते हुए
जैसे भाग आई थी मैं
घर से
पिछले माह गंगा के घाट पर
बिना सोचे-समझे
प्रवाह ने बताया
लोग भटक जाते हैं गलत राहों में चलते हुए
लेकिन
नदी जानती है अपने बहने की दिशा
मैं टकरा रही थी
बहाव के विपरीत
हवा के थपेड़ों से
यह दुनिया एक भूलभूलैया में
तब्दील होती जा रही है
रात के इस पहर में
घोर शांति है
सन्नाटा कह रहा है
सभी दिशाएँ कहीं जाती हैं
लेकिन कहाँ?
नीम चुप क्यों खड़ा है
बरसों से!
बताओ तो?

3. निर्वासन का दर्द

इन दिनों
इस रुके हुए दौर में
विश्वास का चाबुक
पीठ को लहूलुहान किए है
हमारी आशाएँ जब्त कर ली गई हैं
हमारे सपनों के पैबंध
कटे हुए अंगों की तरह
नफ़रत से फेंक दिए गए है अँधेरे घने जंगल में
यह जंगल भेड़ियों के झुंड से घिरा है
नुकीले दाँतों से
टपकता हुआ खून
कौन देख पाएगा?
मैंने ईश्वर को लड़खड़ाते हुए देखा है
वह छोटी बच्ची जो रोज़ मुझे मंदिर में ले जाती थी
उदास है
निर्वासन का अर्थ वह नहीं समझती
नफ़रत और विश्वासघात भी नहीं जानती क्या है
लेकिन उससे छीन ली गई वे दीवारें
जहाँ उसने सीखी आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींचना
बनाना परिवार के चित्र
जहाँ एक वक्राकार रेखा से
बना देती है वह मुस्कान
दो चोटी वाला अपना स्केच
और लिखती है पापा पागल हैं
जिन दीवारों को
भर दिया था उसने
मांगलिक चिह्नों से,
निर्वासन सोती हुई बच्ची की आँख में एक तीर की तरह चुभा
और टपकने लगा खून
खाली कमरा अब चित्रों से नहीं
खून के छीटों से भरा है
बच्ची रो रही है
यह मेरे बचपन का घर है
मत निकालो!

4. बिना पुल की नदी

चल डूबें!
यह बिना पुल की नदी है
यह कहते हुए
उसने मेरा हाथ पकड़
नदी में छलांग लगा दी
मैं कश्तियों को
किनारे से बाँध आया था
वह छोड़ आई थी
घर की चौखट को
सदा के लिए
दो प्रेमियों को
नदी मिला भी सकती है
यह मर के जाना जाता है

5. अपरिजित भाषाओं का गुढ़

सबसे नुकीले सिरे
होने चाहिए कविताओं के
मैंने बरसों चिट्ठियाँ लिखी
हर बार पहुँच जाती
किसी अदृश्य पते पर
सुना था मौन अपरिचित भाषा का गूढ़ हैं
लेकिन कविताओं को तो मारक होना चाहिए
मीठे ज़हर और अच्छी बातों से मारे जाने का
दुख दीर्घगामी होता है
अभिव्यंजनाओं के दुराग्रह में
एक उफ़नती नदी
एक मौन के पुल से गुज़रती है
यह कितना बेमेल है
नदी चाहती है डूबना
पुल चाहता है पार होना!

6. प्रेम प्रेम गाकर उसने

प्रेम प्रेम गाकर उसने
प्रेम को इतना बेज़ार बना दिया था
कि अब प्रेम
आवारा हथिनी का भारी पैर था
जहाँ पड़ता एक गहरा निशान छोड़ जाता
गड्ढों को पाटने का भार
पीठ पर कूबड़ की तरह उग आया था
चेहरे को ढकती है ब्रांड के किसी दूधिया रंग से
वह सुबह उठती और चाय चढ़ा देती
चीनी कम डालती और मिठास के बारे में अधिक सोचती
अवरुद्ध है उन्मुक्त दौड़
उबलती हुई चाय को लौटा दिया जाता है
छलनी की छपाक से
पैन की तलहटी में
कोई पुकार नहीं है आस-पास
याद आती है रात की चीखें
वह जगाता है अपने आदिम पुरुष को
स्त्री की माद से अनभिज्ञ
जुझारू पुरुष दहाड़ता है
जीत के फर्ज़ी दस्तावेज़ों पर
हस्ताक्षर करके
और भूल जाता है सुबह
वह एक भरी-पूरी स्त्री थी!
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गीता मलिक का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ। उन्होंने गृहविज्ञान में परास्नातक, बीएड व बीटीसी की शिक्षा प्राप्त की है। वे शामली जनपद उत्तर प्रदेश के परिषदीय विद्यालय में अध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं। 

गुरुवार, 11 सितंबर 2025

डॉ. नीलम सिंह

 1. सौदागर

 
वह सौदागर था 
फूलों का सौदागर 
बेचा सबको थोड़ा-थोड़ा 
फूल किसी और को बेचा 
कलियाँ किसी और को 
डाल किसी और को 
बाग किसी और को 

वह सौदागर था 
समय का सौदागर 
बेचा सबको थोड़ा-थोड़ा 
लम्हा किसी और को बेचा 
घंटा किसी और को 
दिन किसी और को 
रात किसी और को

वह सौदागर था 
ख्वाबों का सौदागर 
बेचा सबको थोड़ा-थोड़ा 
ख़्यालों किसी और को बेचा 
नैन किसी और को 
नींद किसी और को 
वादा किसी और को 

वह सौदागर था 
ईमान का सौदागर 
बेचा सबको थोड़ा-थोड़ा 
सच किसी और को बेचा 
झूठ किसी और को 
प्रेम किसी और को 
नफ़रत किसी और को
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2. बहनें 


तन्हाइयों और स्मृतियों 
का यह 
बहनापा शायद 
उतना ही पुराना है 
जितनी पुरानी है दुनिया 

बहनें 
प्रायः 
थामती हैं 
जब लड़खड़ा रहा होता है 
जीवन 
वैसे ही 
जैसे स्मृतियाँ  
धमक पड़ती है 
जब खाली होता है 
मन

मगन मन
वैसे ही स्मृतियों से 
दूर रहता है 
जैसे रहती है 
ब्याहता बहन 
अपनी दुनिया में 

गाहे-बगाहें 
आती है 
न्योते बुलावे पर 
पिता,भाई 
नाते रिश्ते निभाने 
जैसे 
आती हैं 
यादें 
हमेशा 
किसी जुड़ाव से 
वे नहीं जाती 
अनजान जंगलों में ।
वो गीली जमीं 
खोजती हैं 
जहाँ पनप सके 
कुछ खट्टा 
कुछ मीठा
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3. खिड़की 


रहती है दीवार में एक खिड़की - 
और खिड़की में रहती हैं 
आँखें ...
जो ताकती हैं 
झाँकती हैं 
जीवन के भीतर और बाहर ।
बाहर खड़ा 
झाँकना चाहता है अंदर ।
अंदर की आँखें
देखती है,
बाहर 
जहाँ है खुला आकाश ..
मगर छत नहीं है।
अंदर है छत 
मगर खुला आकाश नहीं है ।
खिड़की उन दोनों के बीच है 
उससे न बाहर जा सकते हैं 
और ना 
आ सकते हैं अंदर।
केवल देख सकते है
दो सीमाओं को 
भीतर से बाहर 
और 
बाहर से भीतर 
एक मन चाहता है 
बाहर का आकाश
एक मन भीतर को 
छोड़ता नहीं है 
दोनों के बीच
रहती है एक खिड़की
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4. तिजोरी 


स्मृतियों के तिजोरी में 
रखे जाते हैं 
अनछुए लम्हे 
वो लम्हे 
जो नाजुक होते हैं 
ओस की बूँदों की तरह 
वो लम्हे 
जिन्हें हम छुपाते है 
दुनिया से 
वो लम्हे 
जिन्हें हम बचाते है 
धूप से 
हवा से 
रूप से 
नैतिकता के उसूलों से 
वो लम्हे 
जो रखे जाते हैं 
अधखुले आँखो में 
साँसों में 
वो अक्सर 
टूट जाते हैं 
अपने ही हाथों में ।
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5. अस्मिता 


नहीं मिलते 
रात और दिन
नहीं मिलते 
चाँद और सूरज
नहीं मिलते 
दो किनारे
नदी के

शायद 
सृष्टि ने ही बनाया होगा 
यह द्वैत 
ताकि 
साथ रहकर भी 
बनी रहे 
अस्मिता 
अपनी 
अपनी
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डॉ. नीलम सिंह















डॉ. नीलम सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध हिंदू कॉलेज के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। इन्होंने 
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से धूमिल के काव्य पर शोध किया है। नीलम जी कविताओं के साथ-साथ गद्य भी लिखती हैं और सामयिक विषयों पर भी अपनी लेखनी चलाती हैं। 
संपर्क-9953808001 

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

देवेश पथ सारिया

1. भेड़ 


भेड़ों में नहीं होता
सही नेतृत्व चुनने का शऊर

और चुने हुए ग़लत नेतृत्व को
उखाड़ फेंकने का साहस

इतिहास बताता है
इंसानों में भी ये गुण

यदा-कदा ही देखे गए हैं
सर्वप्रथम,

शऊर और हिम्मत की ग्रंथियाँ टटोलकर
दुरूस्त करने के बाद

अनुशासन का पाठ
इंसान को

भेड़ों से सीखना चाहिए।
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2. एक तारा: विज्ञानी का प्रेम 


 उसे चाँद ख़ूबसूरत लगता है
जबकि मुझे लुभाती हैं,

तारों की क़तारें
तारे मेरी रोज़ी हैं

जब अँधेरी रात में तारे खिलें
और मेरी दूरबीन के पहलू में गिरें

तो ही आगे बढ़ पाया मेरा काम
मेरे बैंक अकाउंट की गुल्लक में

सारे सिक्के तारों ने ही डाले हैं
और चाँद?

वह एक आवारा घुसपैठिया है
चाँद के आगे तारे

फीके पड़ जाते हैं
जो तारे पहले ही बहुत धुँधले हैं,

वे दूरबीन से भी नज़र नहीं आते हैं
चाँदनी, तारों के खेत में

चिड़ियों जैसी है
मेरी फ़सल को चट कर जाती है

तारों की ही नेमत‌‌‌‌ हैं
सगाई की अँगूठी

और आर्टिफ़िशियल सस्ता हार
मेरा उसे दिया हर उपहार

मेरा कवि कभी और
ले लेगा

चाँद से
कवियों वाले बिंब उधार

काश,
कम-अज़-कम

एक बार
वह चाँद को कह दे :

चाँद, थोड़ा कम नज़र आया करो!
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3. तारबंदी 


जालियों के छेद
इतने बड़े तो हों ही

कि एक ओर की ज़मीन में उगी
घास का दूसरा सिरा

छेद से पार होकर
साँस ले सके

दूजी हवा में
तारों की

इतनी भर रखना ऊँचाई
कि हिबिस्कुस के फूल गिराते रहें

परागकण, दोनों की ज़मीन पर
ठीक है,

तुम अलग हो
पर ख़ून बहाने के बारे में सोचना भी मत

बल्कि अगर चोटिल दिखे कोई
उस ओर भी

तो देर न करना
रूई का बंडल और मरहम

उसकी तरफ़ फेंकने में
बहुत कसकर मत बाँधना तारों को

यदि खोलना पड़े उन्हें कभी
तो किसी के चोट न लगे

गाँठों की जकड़न सुलझाते हुए
दोनों सरहदों के बीच

'नो मेंस लैंड' की बनिस्पत
बनाना 'एवेरीवंस लैंड'

और बढ़ाते जाना उसका दायरा
धर्म में मत बाँधना ईश्वर को

नेकनीयत को मान लेना रब
भेजना सकारात्मक तरंगों के तोहफ़े

बाज़वक़्त
तारबंदी के आर-पार

आवाजाही करती रहने पाएँ
सबसे नर्म दुआएँ।
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4. शुद्धता एक मिथक है 


वैज्ञानिक शोध ने मुझे सिखाया
कि किसी परिणाम के कोई मायने नहीं

जब तक उसमें त्रुटि न बताई जाए
एक छोटे से पैमाने से मापकर

फटाक से जो हम बोल देते हैं :
फलाँ वस्तु की लंबाई तीन सेंटीमीटर

बिना त्रुटि के है वह बकवास
या मात्र एक आभास

वास्तविकता के आस-पास
त्रुटि आकलन के तरीक़ों में है एक यह भी

कि दोहराते जाओ मापन का कार्यक्रम
अनंत बार में पहुँच जाओगे शुद्धतम मान तक

अनंत एक आदर्श स्थिति है
वह केवल सैद्धांतिक रूप में संभव है

शुद्धता अस्ल में, एक मिथक है
बहुत क़रीब से परखने पर

कुछ भी नहीं होता आदर्श
सममितता की होती है अपनी सीमा

माइक्रोस्कोप से देखने पर धूल
त्रिविमीय विस्तार में समान त्रिज्या की

गोलीय रचना नहीं होती
एक बढ़िया कैमरे से ज़ूम करके देखने पर

रेंगने वाला वह लंबा कीड़ा
मुझे दिखा

पुरानी हिंदी फिल्मों के खलनायक जैसा
दुराचारी नहीं

कैरीकेचर-सा
घर-घर मिट्टी के चूल्हे हैं

इससे आगे की पंक्ति
मुझे मेरे एक रिश्तेदार ने सुनाई थी :

पैंट के नीचे सभई नंगे हैं
उस दूर के रिश्तेदार को

मेरे क़रीबी रिश्तेदार
ख़ानदान की नाक कटाने वाला बताते थे।
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देवेश पथ सारिया

















देवेश पथ सारिया का जन्म 1986 में राजस्थान के भरतपुर में हुआ। वर्तमान समय में यह ताइवान में खगोल शास्त्र में पोस्ट डॉक्टरल शोधार्थी हैं। 
इनकी प्रकाशित पुस्तकों में 'नूह की नाव', स्टिंकी टोफू, 'छोटी आँखों की पुतलियों में', 'हकीकत के बीच, 'यातना शिविर में साथिनें' हैं। 
            देवेश पथ सारिया जी को भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इनकी कविताओं का अनुवाद अंग्रेजी, स्पेनिश, मंदारिन, रूसी, बांग्ला, मराठी, पंजाबी और राजस्थानी आदि भाषा और बोलियों में हो चुका है।
         वर्तमान समय में देवेश जी 'गोल चक्कर' वेब पत्रिका का संपादन भी कर रहे हैं।

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