बुधवार, 30 जुलाई 2025

खेमकरण 'सोमन'

1. चौराहा और पुस्तकालय


चौराहे पर खड़ा आदमी
बरसों से,
खड़ा ही है चौराहे पर
टस से मस भी नहीं हुआ!

जबकि—
पुस्तकालय में खड़ा आदमी
खड़े-खड़े ही पहुँच गया
देश-दुनिया के कोने-कोने में

जैसे हवा-सूरज, धूप-पानी
और बादल
फिर भी देश में
सबसे अधिक हैं चौराहे ही।
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2. ख़ून से अब नमक निकल रहा है


संघर्ष से
ज़िंदगी निकलती है
ज़िंदगी से अब संघर्ष निकल रहा है

पानी से
नदी निकलती है
नदी से अब पानी निकल रहा है

किसानों से
खेत निकलते हैं
खेत से अब किसान निकल रहे हैं

रिश्तों से
परिवार निकलते हैं
परिवार से अब रिश्ता निकल रहा है

नमक से
ख़ून निकलता है
ख़ून से अब नमक निकल रहा है।
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3. कलम के कंधे पर इतिहास


भरोसा है इसलिए
हवा के कंधे पर पेड़
पेड़ के कंधे पर पंछी

धरती के कंधे पर नदी-पहाड़
नदी-पहाड़ के कंधे पर आसमान का सिर है

भरोसा है इसलिए
सड़क के कंधे पर विकास
कलम के कंधे पर इतिहास

खेत के कंधे पर किसान का सिर है
भरोसा है
इसलिए इंसान के कंधे पर 
इंसान का सिर है।
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4. स्त्रियों ने कथाएँ कही


पुरूषों ने कथाएँ कहीं
स्त्रियों ने भी कथाएँ कहीं

पुरूषों में
कुछ ही पुरूष समझ पाए

स्त्रियों ने जो कथाएँ कहीं
कथाएँ नहीं
अपनी-अपनी व्यथाएँ कहीं।
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5. जमीनें देख रही थीं


किसान देख रहे थे
केंद्र और राज्य सरकारों की ओर
केंद्र और राज्य सरकारें
देख रही थीं—

राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर
राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ देख रही थीं
किसानों की ज़मीनों की ओर

किसानों की ज़मीनें देख रही थीं
किसानों की ओर
किसान देख रहे थे
केंद्र और राज्य सरकारों की ओर।

खेत के कंधे पर किसान का सिर है
भरोसा है इसलिए
इंसान के कंधे पर इंसान का सिर है।
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खेमकरण 'सोमन'















खेमकरण 'सोमन' का जन्म 2 जून 1984 नैनीताल उत्तराखंड में हुआ। खेमकरण 'सोमन' हिंदी लघुकथा पर पीएच.डी कर चुके हैं। 'नई दिल्ली दो सौ बत्तीस किलोमीटर', 'पड़ाव और पड़ताल-15', 'लघुकथा सप्तक' (लघु कथा संकलन) आदि इनकी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इन्हें 'दैनिक जागरण' द्वारा 'युवा प्रोत्साहन पुरस्कार' और 'कथा देश' द्वारा 'अखिल भारतीय हिंदी लघु कथा प्रतियोगिता' में तृतीय पुरस्कार प्राप्त है।

बुधवार, 23 जुलाई 2025

अंकुश कुमार

 1. गँवई किरदार


मैंने नहीं किया भ्रमित
अपनी गँवई कविता के किरदार को

मैं उसे ऐसा ही दिखाता हूँ
जैसा वह सचमुच में दिखता है

उसने जब-जब भी की कोशिश
रेल की पटरियों पर चढ़ने की

मैंने कच्ची सड़क पर खदेड़कर
उसे उसकी औक़ात बताई
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2. इबादत 


मौसम करवट बदल रहा है
माँ चूल्हे को ढकने की तैयारी में है

पिता जी रवाना हो गए हैं 
खेत को अब बारिश हो

तो दोनों की इबादत पूरी हो
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3. भूमिकाएँ 


भूमिकाएँ तय की गईं सबके लिए
पुरुषों के लिए भूमिकाओं के चयन के लिए

चुने गए बेटा, बाप, पति, भाई जैसे शब्द
रोते समय उनके चेहरे की मर्दानगी को

ढकने की कोशिश की गई
और कहा गया कि क्या रोते हो औरतों की तरह

उनके हिस्से में जो स्त्रियाँ आईं
उनके लिए वे प्रेमी रहे

और बहुतायत में पति
टिफ़िन लेकर दफ़्तर जाते समय वे होते हैं कर्मचारी

और शाम को लौटते हैं वे पिताओं की
भूमिका में
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4. कहाँ 


आदमी को कहाँ होना चाहिए
ये उसे ख़ुद तय करना होगा

अपने आपसे हर जिरह के बाद
अगर वह अपने आप में नहीं है

तब उसे कहीं नहीं होना चाहिए
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5. अभिनेता


अधिकार हनन को ही
अधिकार समझता है वह अपना

पक्षपात करना हमेशा से उसकी
नियति में रहा है

वह किसी को भी उठवा सकता है दिनदहाड़े
मेरे शहर के लोग

उसे अघोषित बलात्कारी मानते हैं
वह एक अभिनेता है 

जो फ़िल्मों में
राजनेता का किरदार निभाता हैं
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6. आदमी बनने के क्रम में


एक आदमी के बनने में
जो समय लगता है

वह एक प्रगतिशील प्रक्रिया का
हिस्सा होता है

जो नहीं बिठा सके सामंजस्य
समय के साथ

वे पिछड़ गए
और जो रहे हैं संघर्षरत हमेशा

उनको समय ने भी समय दिया है
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अंकुश कुमार 
















अंकुश कुमार का जन्म 8 जुलाई 1994 में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में हुआ। अंकुश जी 'हिंदीनामा' के संस्थापक-संपादक हैं। पेशे से इंजीनियर होने के बाद भी साहित्य में इनकी गहरी रुचि है। 'आदमी बनने के क्रम में' इनकी कविताओं की पहली पुस्तक है जो 2022 में प्रकाशित हुई।
ईमेल- kumarankush664@gamil.com




बुधवार, 16 जुलाई 2025

अर्चना लार्क

1. बरसात हो रही है


बरसात हो रही है
तुम भीग रही हो
लो बिखर गए न पन्ने

एक तस्वीर जो अटक गई है छज्जे पर
धीरे से उतारना
उसके कोने में बची है तुम्हारी स्मित हँसी 

वो पंक्ति भी जिसमें तुम प्रेम में ही शर्त नहीं रखतीं
जीवन के फलसफे भी ख़ुद तय करती हो
तुम ख़ुद को पसंद करती हो

तुम्हारा स्वाद बचा रह गया है
उसे सहेज लो
सुनो इस बार भविष्य की ओर पीठ न करना
तह कर लो सब सामान
अगली बरसात जल्द ही होगी ।

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2. मुखौटा


उसके पास एक मुखौटा है 
जो बाहर निकलते ही लगा लेती है 
दिन भर मुस्कुराती है 

घर आते ही उतार फेंकती है मुखौटा 
और चिल्ला पड़ती है 
इन दिनों घर के सदस्य 

दूर जाने लगे हैं उससे
उसे एक और मुखौटा लगाना होगा 
घर के लिए 

जो स्त्री घर और बाहर 
दोनों जगह मुखौटा लगाती है 
वो अपना मुखौटा 
कहांँ उतारती होगी?

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3. अंधेरा कितना कुछ कहता है


अन्धेरे की पदचाप
सुनी है कभी


महीन सी ध्वनि होती है
जिसमें मिलन का उत्साह
बिछोह का क्रन्दन
एक लम्बी चुप्पी और गहरा रास्ता
जो दिखाई नहीं सुनाई देता है
 
अन्धेरा कितना कुछ कहता है
पर क्या सब
दर्ज़ हो पाता है !

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4. माँ सुन आज एक कहानी 


एक वह समय था 
सपने थे 
जीवन था 

खरगोश और कछुए की दौड़ थी 
छज्जा था 
रंग-बिरंगे पक्षी थे 

पानी में कागज की नाव तैरती थी 
हम खेलते थे और थककर सो जाते थे 
तब थक जाना और सुकून से सोना होता था ना माँ!

खिड़की है 
आसमान है 
किताबें हैं 
बेचैनी है 
घर नहीं है 

पैदा होते ही कुछ खो गया था 
आज तक नहीं मिला 
मिलता ही नहीं 
छूट गया है सब 

मेरे अपने हिस्से एक अपना कमरा भी नहीं माँ 
घर से जाते हुए मुड़कर नहीं देखती बेटियाँ 
यह भी तो तय है ना माँ!

माँ! मेरे सामने ताला पड़ा है
जंग लग चुका है 
उसे कोई खोलने नहीं आता 
मेरे हाथ सुन्न पड़ गए हैं 
मैं रोज उसे देखती हूँ और कुछ नहीं करती माँ!

जिन लड़कियों के कमरे में 
सितारे तितलियाँ जड़े थे 
वह कमरे बीते दिनों में 

बरसाती कीड़ों से  भरे पाए गए 
सड़ांध भर गई है 
चिड़ियों के पंख कुतर दिए गए हैं।

सब मिलकर उनकी प्रजाति ढूंढ रहे हैं 
किसी में तड़प उठी 
किसी में नसीहत 
जो नहीं बदला 
वह था माँ तुम्हारा चुप रहना और लड़कियों का डर जाना 
अंधेरा होते ही एक दीवार की तरफ लौट आना।

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5. चिड़िया 


चिड़िया के चंचु से
छूट जाता है तिनका


एक गीत गाती है
उड़ती फिरती है

शाम होते पक्षी जब घर को लौटते हैं
देखती है
और उम्मीद रखती है
एक दिन उठा लेगी तिनका

बना लेगी घोंसला
घर-संसार से अधिक
वो गीत के बारे में सोचती है
बनाती है जीवन-प्रेम का संगीत

चिड़ियों के बीच
वो चिड़ियों जैसी
नहीं रह पाती है ।

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अर्चना लार्क 









अर्चना लार्क का जन्म 7 जुलाई को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में हुआ। शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय और बी.एच.यू से पूर्ण हुई। वर्तमान समय में अर्चना लार्क राजधानी कॉलेज में हिंदी अध्यापन कर रही हैं।

ईमेल: larkarchana1@gmail.com

बुधवार, 9 जुलाई 2025

ज्योति रीता


1. आलोक धन्वा के लिए


कवि प्रेम करना जानता है
कवि दुलारना जानता है
कवि की भाषा तरल होती है
कवि अंदर तक भावनाओं से भीगा होता है
कवि को नफरत की भाषा नहीं आती
नहीं आती उसे राजनीति की भाषा

वह तोलता है आँखों का पानी
हथेली का स्पर्श
और छूट गया संवाद

कवि चाहता है
कि उसे प्रेम किया जाए
उसके अंतिम समय तक।
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2. हँसती हुई स्त्रियाँ 

हँसती हुई स्त्रियाँ कितनी खूबसूरत लगती हैं
परंतु स्त्री को हँसने से हमेशा रोका गया
एक दिन स्त्री हँसती हुई रसोई से बाहर आ गई

बैठकखाने के बीचो-बीच हाथ मार कर हँसते हुए बोली- 
तुम्हारी सत्ता हमारे हँसने से भी हिलती है क्या
वह हँसी पुरुषसत्ता पर ज़ोरदार तमाचा था

वह पुरुष अलग थे
जिन्होंने हँसती स्त्री के साथ हँसने का वक्त निकाला
उनकी हँसी देखकर निहाल हुए
बांहों में भर कर उन्होंने कहा- मेरी जान! ऐसे ही हँसती रहा करो
तुम हँसते हुए बेहद ख़ूबसूरत लगती हो।

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3. युद्ध और शांति


कितना आसान है
युद्ध छेड़ देना

कितना मुश्किल है
छिड़े युद्ध को रोककर 

मनुष्यता बचा लेना
हर युद्ध के बाद 
अंतत: मनुष्यता हारती है।
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4. यहाँ मनुष्यता गौण है


र एक के हाथ में धर्म का झंडा है
हर एक अपने झंडे को ऊँचा रखना चाहता है

हर एक के हाथ में पत्थर है
एक धर्म दूसरे धर्म के सिर पर पत्थर मारता है

कोई चीखता है जय श्री राम
कोई चीखता है अल्लाह हू अकबर

मनुष्यता गौण है
तथाकथित भगवान-खुदा घायल है।
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ज्योति रीता 




 
 

 




ज्योति रीता का जन्म 24 जनवरी को बिहार में हुआ। ज्योति जी हिंदी साहित्य में परास्नातक और बी.एड, एम.एड हैं। 'मैं थीगल में लिपटी थेर हूँ' (2022), 'अतिरिक्त दरवाज़ा' (2025) इनके प्रकाशित काव्य संग्रह हैं। 
ईमेल- jyotimam2012@gmail.com

बुधवार, 2 जुलाई 2025

डॉ.संजू शब्दिता

 

1. 

ख़ुद ही प्यासे हैं समन्दर तो फ़क़त नाम के हैं
भूल जाओ कि बड़े लोग किसी काम के हैं

दस्तकें ख़ास उसी वक़्त में देता है कोई
चार-छह पल जो मेरी उम्र में आराम के हैं

कोई क्या लाग लगाए कि बिछड़ना है अभी
हमसफ़र आप के हम एक ही दो गाम के हैं

आसमानों में बुलन्दी का सफ़र तय कर के
लौट आते हैं परिन्दे जो मेरे बाम के हैं

शाइरी, चाय, तेरी याद चमकते जुगनू
बस यही चार तलब रोज़ मेरी शाम के हैं

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2. 

सफ़र की रात है दरिया को पार करना है
सफ़ीना डूब गया है मुझे उबरना है

तुम्हारे बाद अभी इन शिकस्ता क़दमों से
पहाड़ चढ़ने हैं दरियाओं में उतरना है

वो संग-दिल जो अभी रो पड़ा तो इल्म हुआ
कि उस पहाड़ के सीने में एक झरना है

मैं ख़ुश-लिबास समझ कर पहन रही हूँ क़फ़न
मैं ज़िन्दगी हूँ मेरा काम रंग भरना है

मिटाना ख़ुद है मुझे अपने अंदरूं का शोर
मगर ये काम बहुत ख़ामुशी से करना है

मिटा रही हूँ चटख रंग सब शबीह के मैं
कि कैनवस को बहुत सादगी से भरना है

किसी की मौत पे अक्सर ये सोचती हूँ मैं
मुझे भी कल को इसी राह से गुज़रना है

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3. 

पर्वतों के बीच वह जो इक नदी थी
अक्स अपना मैं उसी में देखती थी

रंग मुझ पर एक भी चढ़ता नहीं था
सादगी भी क्या बला की सादगी थी

आह वो मुझको किसी में देखता था
आह मैं उसको किसी में देखती थी

सिर्फ़ माज़ी कह के फ़ुर्सत हो लिए हम
क्या बताते क्या हमारी ज़िन्दगी थी

तुम फ़क़त इस जिस्म तक ही रह गए ना
मैं तुम्हें ख़ुद से मिलाना चाहती थी

चाँद-सूरज तक मेरे आँगन में उतरे
ज़िन्दगी बस एक तेरी ही कमी थी

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4. 

आप होते हैं कहाँ गाम कहाँ होता है
इश्क़ में यूँ भी सफ़र आम कहाँ होता है

इश्क़ में हैं जो उन्हें काम में राहत दी जाए
इश्क़ में होते हुए काम कहाँ होता है

आप हैं शाह जिसे चाहें खरीदें लेकिन
हम फ़क़ीरों का कोई दाम कहाँ होता है

यूँ करो एक ही झटके में चढ़ा दो सूली
रोज़ की मौत में आराम कहाँ होता है

ज़िन्दगी तेरी पढाई का अजब है दस्तूर
बस रिजल्ट आता है एग्जाम कहाँ होता है

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5. 

हर क़दम राह बनाने में कटी उम्र मेरी
घर से दालान तक आने में कटी उम्र मेरी

आईना देख सकूँ इतनी कहां फ़ुरसत है
ज़िन्दगी तुझ को सजाने में कटी उम्र मेरी

शूल को शूल समझने का सलीक़ा सीखा
फूल को फूल बताने में कटी उम्र मेरी

दिल मेरा रूठ गया मेरे तग़ाफ़ुल से ही
जाने किस किस को मनाने में कटी उम्र मेरी

देखती रहती हूँ मैं पार उतरते हुए लोग
पार गिरदाब लगाने में कटी उम्र मेरी

घर से निकली तो फ़क़त दो ही क़दम थी दुनिया
लौट कर फिर से घर आने में कटी उम्र मेरी

साँस भर जितनी हवा की ही ज़रूरत थी मुझे
और बस इतनी कमाने में कटी उम्र मेरी

रानियाँ तक तो जहाँ क़ैद में रहती हैं हुज़ूर
एक ऐसे ही घराने में कटी उम्र मेरी

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6. 

हुनर देखे सभी चारागरी के
न आया काम कोई ज़िंदगी के

ज़रा सी आँख नम होती है मेरी
किनारे डूब जाते हैं नदी के

सराबों में नज़र आता था दरिया
नज़र में क़ैद थे हम तिश्नगी के

न रस्ते का न मंज़िल का ठिकाना
ग़ज़ब दिन थे मेरी आवारगी के

बक़ाया हो गया है उम्र भर का
बड़े महंगे हैं ज़ेवर सादगी के

मैं जिस मंज़िल की जानिब बढ़ रही हूँ 
मुसाफ़िर मिल रहे हैं वापसी के

मैं होश अपना किसी को दे चुकी थी
मेरे किस्से बहुत हैं बेख़ुदी के

दुखों की शायरी अच्छी है मेरी
नये पहलू निकाले हैं ख़ुशी के

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डॉ.संजू शब्दिता
















उत्तर प्रदेश के अमेठी में जन्मी डॉ.संजू शब्दिता की स्कूली शिक्षा उत्तर प्रदेश के विभिन्न कस्बों और नगरों में हुई।विश्वविद्यालय से इन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की।हिंदी विषय से नेट,जे.आर.एफ. एवम्  पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त है।
संजू शब्दिता ने साहित्यिक परिदृश्य में विशेष रूप से ग़ज़ल के क्षेत्र में बहुत कम समय में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है।

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