बुधवार, 25 जून 2025

डॉ. पार्वती तिर्की


1. माख़ा 



जब मनुष्य
खेत, टोंका और ड़ाँड़

बनाने में
अनंत दिनों तक

जुटा रहा,
अनंत दिनों की

थकान को ढोए रहा,
उसने धर्मेश से
विनती की!

तब
धर्मेश ने
उनको ‘रात’ दिए!

फिर मनुष्य रात में सोए
और दिन में खेत कोड़े!

(माख़ा- रात
धर्मेश- कुड़ुख आदिवासियों में धर्मेश 'सूर्य' देवता को कहा जाता है)
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2. नकदौना चिड़िया: एक 



आसमान में उड़ते हुए
नकदौना गीत गा रही थी

उसके गीत की
मधुर ध्वनि सुनाई पड़ रही थी—

पुईं चे चे…
पुईं चे चे…

उसके इस गीत को सुनकर
सभी समझ गए…
कि बारिश आने में अभी देरी है!

(नकदौना चिड़िया- आदिवासी पक्षी)

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3. निरंतर 



इस जंगल में 
चिड़ियों और मनुष्य का संवाद 
नदी की तरह क़ायम था—
निरन्तर...
 
बारिश से पहले 
जंगल गए लोग घर लौट आते थे 
बारिश के पहाड़ पर उतरने से पहले 
मनुष्य पहाड़ से उतर जाता था।
 
इस जंगल में 
जाइनसाला पक्षी का डेरा था, 
बारिश से पहले वह बोल देती थी—
 
‘ओ मनुष्य, देखो! 
बारिश होने वाली है, 
तुम जल्दी अपने घर चले जाओ।’
जाइनसाला का संदेश 
आज भी लोगों को अनचाहे भीगने नहीं देता 
वे बारिश से पहले जंगल से घर लौट आते हैं। 
कि बारिश आने में अभी देरी है!
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4. वे पुरुष 

 
वे पुरुष 
जिन्होंने स्त्रियों से प्रेम किया 
पंछियों के प्रति अधिक विनम्र हुए 
और धरती की ओर 
अधिक झुके हुए दिखे
अपनी पीठ पर 
बच्चे को बेतराए हुए 
और उन्हें खेलाते हुए दिखे

 
वे पुरुष 
जो स्त्रियों के गीतों को 
दोहराते हुए सुनाई पड़े 
वे पुरुष 
जिन्होंने स्त्रियों से प्रेम किया 
पुरुष होते हुए अधिक स्त्री हुए।

(बेतराए- बच्चों को पीठ पर उठाना)

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5. गीत गाते हुए लोग 


कभी भीड़ का हिस्सा नहीं हुए
धर्म की ध्वजा उठाए लोगों ने 
जब देखा 
गीत गाते लोगों को, 
वे खोजने लगे उनका धर्म
उनकी ध्वजा
 
अपनी खोज में नाकाम होकर 
उन्होंने उन लोगों को जंगली कहा 
वे समझ नहीं पाए 
कि मनुष्य जंगल का हिस्सा है
 
जंगली समझे जाने वाले लोगों ने 
कभी अपना प्रतिपक्ष नहीं रखा
 
वे गीत गाते रहे 
और कभी भीड़ का हिस्सा नहीं बने।
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पार्वती तिर्की 










डॉ. पार्वती तिर्की का जन्म 16 जनवरी 1994 को झारखंड के गुमला जिले के कुड़ुख आदिवासी परिवार में हुआ। पार्वती तिर्की रांची के राम लखन सिंह यादव कॉलेज के हिंदी विभाग में सहायक अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं। 'फिर उगना' उनकी पहली काव्य कृति है। यह वर्ष 2023 में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हुई। उनकी 'फिर उगना' कविता संग्रह को 2025 का ' युवा साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ है।'

बुधवार, 18 जून 2025

शिवांगी गोयल

1. दुआरे की देवी


जिस दुआरे पर दुर्गा माता की तस्वीर टँगी थी,
बजरंग-बली की मूर्ति लटकी थी
जिसके सहारे अम्मा निश्चिंत सो जाया करतीं
उसी दुआरे से सारे दुख आए
उसी दुआरे से बाबा की पार्थिव देह आई 
उसी दुआरे से वो सभी शुभचिंतक रिश्तेदार आए
जिन्होंने अम्मा के दुख का जश्न मनाया
जिन्होंने चीख-चिल्लाकर रोने का ढोंग किया
हर संभव कोशिश की अम्मा के 
मुँह से दुख के दो बोल सुनने की
अम्मा रोईं तो बस अपने 
मंदिर की कुलदेवी के आगे
किसी और ने उनका दुख नहीं देखा

दुआरे पर बसी देवी को अम्मा के 
टूटने पर उतना दुख नहीं हुआ
जितना अम्मा को एक दिन 
देवी की मूर्ति के कान टूट जाने पर हुआ
उस दिन, दिन भर अम्मा ने खुद को कोसा
देवी ने अम्मा के मंगलसूत्र टूटने पर 
खुद को कितनी बार कोसा होगा पता नहीं
मेरा मन हुआ कहने का “माँ, मूर्ति के कान टूटे हैं, 
असली दुर्गा के नहीं”
लेकिन अम्मा को उस मूर्ति में देवी के
होने का यकीन सबसे ज़्यादा था

अम्मा दुआरे की देवी को बहुत प्यार करती थी,
दुआरे की देवी भी अम्मा से उतना ही 
प्यार करती रही हो, शायद!
दुआरे की देवी अम्मा के सारे दुख 
दुआरे पर ही रोक सकती थी, शायद!
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2. आँधी के बाद


साथी!
हम इतनी भयानक आँधी में साथ थे
और सुब्ह तक बने रहे
जब ये सारे पेड़ अपनी जड़ों समेत
अपनी मिट्टी से बाहर निकल आए, गिर पड़े
ये पत्तियाँ अपनी टहनियों से अलग
ये टहनियाँ अपने चितकबरे तनों से अलग
निकल आईं और गिर पड़ीं
तब तुम और मैं रुके रहे

हम भी तो उजड़ सकते थे 
गलतफ़हमी की आँधी में
कैसी तो उजाड़ रात थी, कैसी डरावनी भोर
हम बिना आखिरी शब्द कहे 
अपनी मिट्टी से उखड़ सकते थे
कौन रोकता हमें? कौन रोपता हमें?
पर हमने सुबह का सूरज एक साथ देखा
हम बने रहे

मिट्टी का जड़ों से क्या रिश्ता है
इतना की जड़ें छोड़ती हैं मिट्टी को
तो पूरी तरह नहीं छोड़ पातीं
दोनों एक-दूसरे के हिस्से में 
थोड़ी बची रह जाती हैं
हमने एक-दूसरे को थोड़ा बचा लिया
हम एक-दूसरे में थोड़ा बने रहे

मैं तुम्हारा घर तो नहीं पर
कभी उड़ान से थक जाओ तो
मेरे पास आ जाना
उस छोटी चिड़िया की तरह जो
आँधी में पेड़ की टहनी पर बैठी रह जाती है
भरोसा करती है

क्या चिड़िया का पेड़ से कोई रिश्ता है
क्या तुम्हारा मुझसे कोई रिश्ता है?
तुम आ जाना साथी, हम बने रहेंगे
अलविदा के बाद भी
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 3. सीता और बुद्ध 

एक दोस्त ने सवाल किया
कि स्त्री हमेशा सीता ही क्यों होती है?
उसे बुद्ध भी तो होना चाहिए!


“क्योंकि बुद्ध की तरह
अपने सोते पति और बच्चे को छोड़कर जाएगी
तो ये घटिया समाज पहले ही घोषित कर देगा
कि प्रेमी के साथ भागी होगी,
कोई यह नहीं जानेगा कि ख़ुद की तलाश में निकली है।”

यह समाज बड़ा दोगला है स्त्री
बुद्ध जंगल से लौटते हैं तो तथागत हो जाते हैं,
सीता लौटती है तो कलंकित हो जाती है।
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4. विद्रोही जड़ें 

कभी देखा है विद्रोह को
अपने भीतर जड़ें जमाते?
जैसे मिट्टी से निकलकर फैलते हैं केंचुए
वैसे ही दिमाग़ से निकलकर
फैलती विद्रोह की नसें;
किसी पेड़ की जड़ सरीखी पनपतीं
चुभ रही हैं अंदर से
बेचैनी का सबब बनती जा रहीं


रोको! वरना मैं विद्रोह का पेड़ हो जाऊँगी
जिसके हाथ और पैरों की जगह होंगी
विद्रोही टहनियाँ , विद्रोही जड़ें;
आ लिपटेंगे स्वतंत्रता की केंचुल ओढ़े हजारों साँप

और एक दिन सामाजिक संस्कारों की कुल्हाड़ी से
काट दी जायेंगी मेरी विद्रोही जड़ें
और तब वह साँप अपनी केंचुल वहीं छोड़
एक नई केंचुल ओढ़ आगे निकल जायेंगे!
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5. घर कितना बड़ा हो 


मैंने आँसू पोंछ कर कहा था
"घर इतना बड़ा तो होना चाहिए
कि रोने के लिए एक कोना मिल सके"

तुमने मुझे गले लगाते हुए कहा था
"घर कभी इतना बड़ा नहीं होना चाहिए
कि तुम अकेली रोती रहो और मुझे पता ना चले!"
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शिवांगी गोयल 















शिवांगी गोयल का जन्म 13 जुलाई 1997 में बिहार के सिवान जिले में हुआ। कई साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं एवं डिजिटल पटल पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहीं हैं। वर्तमान समय में शिवांगी जी इलाहाबाद विश्विद्यालय से अंग्रेजी विषय से पी.एच.डी कर रही हैं।




बुधवार, 11 जून 2025

प्रेम रंजन अनिमेष

1. बच्चे की स्लेट पर लिखे कुछ सवाल


क्या सच में एक दिन
स्वच्छ जल रह जाएगा केवल नारियल में

और खाली बाँस के खोल में साँस की हवा
क्या बस जुगनुओं में रह जाएगी सच की लौ

और उर्वर मिट्टी केंचुओं के बिल में
श्यामपट इतना बड़ा कोरा फैला हुआ

और ज़रा-सी खड़िया नहीं होगी
‘छुट्टी’ लिखने के लिए भी

क्या सच में एक दिन
झींगुरों के पास ही रह जाएगी पुकार

और चिड़ियों को भी
पता नहीं चलेगा सुबह होने का...?
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2. भरोसा - एक


दस्तक दो
तो सबसे छोटे को
दो आवाज़
भले ही वह शिशु हो

चलना नहीं जानता हो अभी
जो छोटे हैं
उन्हीं से
सबसे अधिक उम्मीद है

दरवाज़ों के
खुलने की
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3. भरोसा - दो


भरोसा रखना होगा

डाकिया पहुँचा देगा चिट्ठियाँ
और गाड़ी ले जाएगी मुक़ाम तक

कहीं न कहीं अनजाने होंगे सभी
और वहाँ यह भरोसा ही देगा साथ

कि पूछने पर कोई सही बताएगा रास्ता
और किसी सुनसान में गिर गए चलते-चलते

तो कुत्ते भी खींच लाएँगे बस्ती में
भरोसा रखना होगा

नई माँओं के सीने में उतरेगा दूध
नए फूलों से उमगेगी गंध

चाहे कुछ हो कभी
धोखा नहीं देगी आँखों की नमी

भरोसा रखना होगा
कि नमक की जगह नहीं मिला होगा ज़हर

कि लौटने पर वहीं मिलेगा घर
सूर्य उगेगा फिर

अगली सुबह खुलेंगी
और देखेंगी आँखें

कुछ भरोसों की रेज़गारी
चाहिए गाढ़े दिनों के लिए

इसके बिना
प्यार नहीं किया जा सकता

गीत नहीं रचे जा सकते
जूझा नहीं जा सकता जीवन में
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4. दाय


मिट्टी ने उगाया
हवा ने झुलाया
धूप ने पकाया

बौछारों ने भरा रस
नहीं सब नहीं तुम्हारा

सब मत तोड़ो
छोड़ दो कुछ फल पेड़ पर

पंछियों के लिए
पंथियों के लिए
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5. ठिठकना


एक मिनट के लिए
किसी का हाल पूछने रुकूँगा
और बारिश में घिर जाऊँगा

एक मिनट
राह बताने लगूँगा अजनबी को
और गाड़ी छूट जाएगी

एक मिनट थमकर
एक वृद्ध को सड़क पार कराऊँगा
और काम पर कट चुकी होगी मेरी हाज़िरी

फिर भी चलते-चलते
ठिठकूँगा
एक पल के लिए
कि चौबीसों घंटे में अब
इसी एक मिनट में
बची है ज़िंदगी!
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6. छाता


जिनके सिर ढँकने के लिए
छतें होती हैं
वही रखते हैं छाते

हर बार सोचता हूँ
एक छत का जुगाड़ करूँगा

और लूँगा एक छाता
इस शहर के लोगों के पास जो छाता है

उसमें कोई एक ही आता है
इसलिए

सोचता हूँ
मैं लूँगा

तो लूँगा आसमान
कि जिसमें सब आ जाएँ

और बाहर खड़ा भीगता रहे
बस मेरा अकेलापन!
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7. पहला नाम


बच्चे ने सुना

माँ
त्याग का
दूसरा नाम है

बच्चे ने जाना

माँ
चूल्हे की आग का
दूसरा नाम है

माँ का पहला नाम
ढूँढ़ रहा है बच्चा
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प्रेम रंजन अनिमेष


कवि प्रेम रंजन अनिमेष का जन्म बिहार में हुआ। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से अँग्रेज़ी भाषा और साहित्य की शिक्षा प्राप्त की। 'मिट्टी के फल', 'कोई नया समाचार', 'संगत' और 'अँधेरे में अंताक्षरी' उनके प्रकाशित कविता संग्रह हैं। 'अच्छे आदमी की कविताएँ' नाम से उनकी रचनाएँ ईबुक के रूप में प्रकाशित हैं। उन्हें कविता के लिए भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। वे कहानी और बाल कविता भी लिखते हैं। 
कवि प्रेम रंजन ने नोबल पुरस्कार प्राप्त आयरिश कवि सीमस हीनी और अग्रणी अमरीकी कवि विलियम कार्लोस विलियम्स की कविताओं का अनुवाद किया है। 

बुधवार, 4 जून 2025

डॉ. माया गोला

1. गुनहगार

  
धूर्तता करते पाए गए
जातियों के बारे में सोचने वाले लोग
चालाकियों में लिप्त पाए गए 

धर्म का चोला ओढ़ने वाले 
राष्ट्र के निर्माता कई
इतिहास की गंभीर 
भूलें करते पाए गए 
तथाकथित देशप्रेमी 
मुफ़्त की मलाई खाते पाए गए

होरी बेचारा हाड मांस का ढांचा रह गया
रसूखदार लोग मालामाल पाए गए 
श्रम करने वालों के हिस्से सिर्फ़ नमक आया पसीने का
मालिक सब समुन्दर में नहाते पाए गए!
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2. युद्ध


जब भी युद्धों की बात होगी 
मैं कारणों पर बात करुँगी 
बिना कारण होते नहीं युद्ध
युद्धों के कारण होते हैं भरपूर 
कि कारण भी अकारण नहीं होते 

मनुष्य का अतीत ही ऐसा है 
उसका इतिहास भी 
शुरू हुआ युद्ध से 
जाति और संप्रदायों की खुराक पाकर
हुए युद्ध

धरती का कलंक हैं
धरती की कोई भी प्रजाति इतनी कलंकित नहीं
कि जाति, औ' संप्रदायों की चौखटों के भीतर
सोई पड़ी हिंसा की नींव पर
अहिंसा का खोखला पेड़ खड़ा है
कि धर्म की किताबों तक में 
युद्ध के रोचक वर्णन हैं!

जाति की बर्बरता का क्या ठिकाना!
सरहदों की दीवार ख़ून से सनी है!
मैं जब युद्ध की बात करूंगी  
तब जाति और संप्रदाय की बात भी करूंगी  
और चाहूंगी कि 
इन संप्रदायों को 
जातियों को 
उड़ा दिया जाए 
तोपों से
बंदूकों से
ताकि बचा रहे मनुष्य
बची रहे मनुष्यता 
कि युद्धों से शांति न पहले कभी हुई
न होगी
कि प्रेम के दामन में ही खिल सकते हैं
सिर्फ़ शांति के फूल।
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3. फागुन 


गाँव में बौराए आम के पेड़ तले 
बैठा फागुन 
सोचता 
इक उमर भई 
कैसे लौटे पीछे 
बचपन में 
कच्चे घर 
कच्चे आंगन 
कच्चे-पक्के मन 
प्रीत पगे पर
संगी साथी 
खिलते गुलाब भीतर 
महकती खुशबू बाहर 

जवान हुआ तो 
गेहूं के खेतों-सा हरा हुआ 
सरसों-सा फूला 
सेमल-सा लाल 
बालियों में दानों-सा गदराया 
जीवन में बसंत इसी समय आया !

अहा! वो क्या दिन थे 
कितना कुछ बीत गया 
जीवन का घट भरा-भरा तब 
अब कितना कुछ रीत गया 
सोचता फागुन 
करता मलाल
 
बौराया आम
खिला टेसू, गुड़हल, गुलाब सब
कुदरत की माया 
पर सूख रहे नेह के कुएँ
नदी की चाल कुछ ढीली है
प्रेम की रंगत पीली है 

हाय! यह सियासी होली है 
बेसुर हुआ फाग है 
जुम्मन मियाँ का मन उदास है 
धीर-धीरे फिसल रहे मुट्ठी से रंग 
धूल-धूसरित कितने बदरंग
समय सियासत गड्डम-गड्ड
लट्ठम-लट्ठ 

उठा फागुन 
पकड़ी लाठी 
चल दिया 
ज्यों चला जा रहा हो बूढ़ा इक
लचक-लचक। 
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4. कुछ मनुष्य! कुछ आदमी 

   
कुछ मनुष्यों के पास सत्ता है 
सिंहासन है 
अधिकार हैं मुट्ठी में 
जो चाहे करें 

उनके पास 
दिमाग़ है 
तिकड़मी 
उस पर हावी जुबान है 
जो चाहे बोलें 

उनके अहम्  
उनके वहम 
ग़ज़ब हैं 
जिसको चाहे धराशाई करें

धूर्तताएँ हैं 
चालाकी हैं 
मुखौटे हैं 
जैसा चाहे अभिनय करें

उल्लू 
गिरगिट 
नाहक बदनाम हुए 
महापुरुषों की दुनियाँ अजब है!
 
हाँ, आदमियों की बात और थी 
वे इतिहास में इने-गिने ही हुए।
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5. समय


कल सुबह जब मैं सोकर उठूंगी 
दरवाजा खोलूंगी  
तब न हवा बदली होगी और न दृश्य
सूरज रोज की तरह ही उदित होगा 
बीते दिन-सा ही होगा सब कुछ 

त्वरित बदलाव प्रकृति का संस्कार नहीं 
फिर भी तारीखों में दर्ज़ 
समय 
अपना एक टुकड़ा 
मुझे थमाएगा 
मुझे थामना ही पड़ेगा 

समय कुदरत की व्यवस्था है 
तारीखें समाज की  
इन्हें खारिज़ भी नहीं किया जा सकता
रक्त रंजित तारीखें 
बहुत कुछ बताती हैं इतिहास के बारे में 

अतीत में किसी के 
शूल-सी गढ़ी रहती हैं 
कुछ तारीखें काली 

दुख-सुख 
विषाद-उल्लास 
हार-जीत 
क्या नहीं शामिल इनमें !

जैसे थक कर बैठ जाता है यात्री
फिर उठता है 
चलता है
चाहते 
न चाहते 
 
जैसे चलता है समय 
चलता रहता है 
फूलों में 
शूलों में 
कभी न रुकने के लिए। 
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डॉ. माया गोला















डॉ. माया गोला का जन्म 8 फरवरी 1977 को अल्मोड़ा में हुआ। इन्होंने अपनी शिक्षा कुमाऊँ विश्वविद्यालय से पूर्ण की। वर्तमान समय में माया जी कुमाऊँ विश्वविद्यालय के सोबन सिंह जीना परिसर,अल्मोड़ा के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। 'चीनी, नमक और नीम', 'चयनित कविताएँ', 'उपाधियाँ लौटती हूँ' तथा 'मौलसिरी' नाम से इनके चार काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 
ईमेल:drmayagola@gmail.com 

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