बुधवार, 12 मार्च 2025

अनुजीत इक़बाल

1. नया राग


आखिर एक दिन वह क्षण भी आएगा
जब तुम, समय की देहरी पर खड़े
स्वयं को निहारोगे और
स्वयं का ही अभिवादन करोगे

संध्या के अस्त होते आलोक में
जब आकाश गोधूली रंगों से भर जाएगा 
और दूर मंदिर की घंटियाँ 
किसी भूले-बिसरे स्वर को जाग्रत करेंगी
तुम खुद को कहोगे, “आओ, विश्राम करो अब, बहुत हुआ...”

राग यमन की मधुरता में डूबा क्षितिज
धीमे-धीमे तुम्हें अपनी बाँहों में समेटने लगेगा
सप्तक के मध्यम सुर पर थिरकते सरोद और सितार की ध्वनियाँ
तुम्हारे मन के रिक्त कोनों को भरने लगेंगी

तुम अपनी उस विलुप्त छवि को आलिंगन दोगे
जो अनवरत तुम्हारे साथ चली
पर तुमने उसे कभी अपना नहीं माना
तुम उसके हाथ में धरोगे वह सारा प्रेम
जिसे तुम लोगों को अर्पित करते-करते
स्वयं रिक्त हो गए थे...
और वह छवि प्रतीक्षा करती रही
राग अहीर भैरव की तरह
जो भोर में फिर से स्वर पा सके…

अब, वह राग फिर से लौटेगा
राग संधिप्रकाश, जिसे केवल संध्या जानती है

फिर तुम अपने हृदय से झरने दोगे
वह समस्त विषाद, वे अवसन्न स्वर
वे विफल स्वप्न
जो आजीवन शोकगीत बने रहे
और तब, झंकार उठेगी
रात्रि के गंभीर आकाश में, राग मालकौंस की

रुद्रवीणा की कंपन भरी ध्वनि
जब रात्रि के प्रथम प्रहर में घुल जाएगी
और पखावज की थाप गूंजेगी
तब तुम अपनी ही धुन में खो जाओगे

और स्वयं का मंगल गान करते हुए  
रचोगे एक नया राग
_____________________________________

2. कामना


युगों से अभिशप्त 
मेरे स्वछंद हृदय की कामना
विस्थापित हो सूर्य हुई
जिसकी ऊष्मा से
मेरे समस्त दुश्चरित्र स्वप्नों के बीज
अंतहीन विस्तार पा गए
और तुम्हारे मौन प्रेम के जल से
रक्त पुष्प प्रस्फुटित हुए

मेरे बोधिसत्व प्रेम
तुम आना अपने स्फुट उत्कर्ष में
मेरे ऊर्जा केंद्र जाग्रत करने

मैं चाहती हूँ तुम अपने ईश्वर को नकार दो
और मेरे उन्माद को विक्षिप्तता में बदल दो
जैसे प्रकृति अनगढ़ मौन में
निर्माण को विध्वंस में बदल देती है
और फिर आता है
परम स्थैर्य

तुम्हारे हाथ के कंपन 
मेरी अबूझ, अदेह भाषा समझते हैं
_____________________________________

3. वचन


हे प्रियतम
तुम्हारा अघोर रूप
किसी सर्प की भांति
मेरे हृदयक्षेत्र में
कुंडली मार बैठ गया है
और मैं वैराग्य धारण करने के पश्चात
प्रेमविह्वल हो रही हूँ 

गेरुए वस्त्र त्याग कर
कौमुदी की साड़ी ओढ़ कर
तृष्णा के ज्वर से तप्त
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे समक्ष
चंद्र की नथनी डाल कर


तुम्हारी समस्त इंद्रियाँ 
हिमखंड की भांति स्थिरप्रज्ञ हैं
लेकिन दुस्साहस देखो मेरा
तुमसे अंकमाल होते हुए 
प्रक्षालन करना चाहती हूँ 
तुम्हारी सघन जटाओं का

मोक्ष के लिए 
मुझे किसी साधना की आवश्यकता नहीं
समस्त कलाओं का रसास्वादन करते हुए
मेरी कलाई पर पड़ा
तुम्हारे हाथ की पकड़ का नील
काफी होगा
मुझे मुक्ति दिलाने के लिए

वचन देती हूँ 
वो दिन अवश्य आएगा
_____________________________________

4. पैंडोरा बॉक्स 


मन की अतल गहराइयों में
एक बक्सा पड़ा है
बंद, जर्जर, धूल से ढका
पर भीतर…
आवाज़ें गूंजती हैं

सपनों के छिन्न अवशेष
कुछ रक्तरंजित यथार्थ 
कुछ घाव, जो स्पर्श मात्र से
रिसने लगते हैं 

यह बक्सा खुलते ही
हवाओं में घुल जाएगा
विष का पुराना स्वाद
रातें फिर से डरावनी हो जाएंगी 

फिर भी
कब तक सिसकियों को 
चुप रहने का आदेश दिया जाए 
कब तक तड़प को शब्दों से वंचित रखा जाए
कब तक मौन के आवरण में
घावों को सड़ने दिया जाए

आज नहीं तो कल
इस पैंडोरा के बक्से को खोलना ही होगा

और फिर समय
एक निर्दयी वैद्य की भाँति
किसी दिन संधान करके 
विष की गाँठ खोल देगा

और हम...
अग्निस्नान करके 
निर्बंध, मुक्त, निर्वसन
पुनः जन्मेंगे
_____________________________________

5. मायोसोटिस के फूल 


आकाश पर धूम्र-पुष्प दिखने लगे हैं 
बिखर रहे हैं जो हर जगह अव्यवस्थित 
और एक तीव्र तड़प
एक असीम विक्षोभ भरा है 
जिसे बरस कर रिक्त होना है

पहाड़ की एकाकी धूसर पाल के पीछे 
छिप गया है सूरज 
जो कर गया है खत्म दिन को
अपने सुनहरी वज्र के साथ

और अब मुझे दिखती है 
आकाश में उल्टी बहती हुई एक नदी

हरियाली रहित खड़ी चट्टानों
और सूखे अरण्यों का
उत्कट एकाकीपन है मुझ में 
उपेक्षा और अमर्ष से उन्मत्त
देवताओं से श्रापित हूँ मैं

विनम्रता से स्वीकार करने दो कि 
मायोसोटिस के रहस्यमय नीले फूल की
पीली अबाबील जैसी आँखें 
याद दिलाती हैं तुम्हारी 
_____________________________________


6. प्रेम


हे महायोगी
जैसे बारिश की बूंदें
बादलों का वस्त्र चीरकर
पृथ्वी का स्पर्श करती हैं
वैसे ही, मैं निर्वसन होकर
अपना कलंकित अंतःकरण
तुमसे स्पर्श करवाना चाहती हूँ 

तुम्हारा तीव्र प्रेम, हर लेता है
मेरा हर चीर और आवरण
अंततः बना देता है मुझे
“दिगंबर”

थमा देना चाहती हूँ अपनी
जवाकुसुम से अलंकृत कलाई 
तुम्हारे कठोर हाथों में
और दिखाना चाहती हूँ तुमको
हिमालय के उच्च शिखरों पर
प्रणयाकुल चातक का “रुदन”

मैं विरहिणी
एक दुष्कर लक्ष्य साधने को
प्रकटी हूँ इन शैलखण्डों पर
और प्रेम में करना चाहती हूँ 
“प्रचंडतम पाप”
बन कर “धूमावती” 
करूंगी तुम्हारे “समाधिस्थ स्वरूप” पर 
तीक्ष्ण प्रहार 
और होगी मेरी क्षुधा शांत


हे महायोगी, मेरा उन्मुक्त प्रेम
नशे में चूर रहता है


धूमावती- दस महाविद्याओं में पार्वती का एक रूप, जिसने भूख लगने पर महादेव का भक्षण किया था।
___________________________________


अनुजीत इक़बाल















अनुजीत इकबाल हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखती रही हैं। अनुजीत जी लखनऊ में पुस्तक मेला द्वारा आयोजित राष्ट्रीय स्तर की हिंदी और कविता लेखन और अंग्रेजी कविता लेखन प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान एवं सम्मान अर्जित कर चुकी हैं। अंग्रेजी कविता के लिए इन्हें कोलंबिया से 'Antonio Machado National Universal Award' और 'Ruben Dario Award' भी प्राप्त है। विभिन्न संस्थाओं द्वारा पेंटिंग,लेखन, योग के लिए 150 से अधिक सम्मान पत्र प्राप्त।'हिंदवी','स्त्री दर्पण','गृह शोभा' दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के 'स्त्रवंति', भारतीय भाषा परिषद की 'वागार्थ', 'गर्भनाल' पत्रिका, 'शुभ तारिका','जानकीपुल','पोषमपा', 'विभोम स्वर','नवभारत टाइम्स','हम हिंदुस्तानी अमेरिका', 'हिंदी अब्रॉड' कनाड','साहित्य कुंज'आदि देश-विदेश सहित कई पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

लोकप्रिय पोस्ट