1. शोर
शोर
सन्नाटे के विरूद्ध की गई
सन्नाटे के विरूद्ध की गई
क्रांति है मेरे दोस्त
तुम्हें यह क्रांति करनी होगी।
तुम्हें यह क्रांति करनी होगी।
तुम्हारे साथ खड़े होंगे-
ऊँचे पर्वतों को चीरती हुई हवाएँ
धरती में धँसता हुआ जलप्रपात
नदियाँ भागेंगी शोर करते हुए
सागर भी शोर मचाएंगे।
शेर दहाड़ेंगे, हाथी चिंघाड़ेंगे
कुत्ते भौंकेंगे, और गीदड़ भी हुआँ- हुआँ करेंगे।
कोई चिक-चिक करेगा, कोई चीं -चीं
कोई हिन्-हिन्, कोई सीं-सीं
कोई रेंगेगा, कोई उछलेगा, कोई दौड़ेगा
कोई फुदकेगा, कोई आकाश तक उड़ेगा
लेकिन वह शोर करेगा,
वह ज़िंदा रहेगा, तुम्हारे साथ रहेगा।
जो कायर होगा,
मौन रहेगा, मारा जाएगा।
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2. दुनिया
मेरी एक दुनिया है
धूल है, शुष्क हवाएँ हैं
जहाँ कभी-कभार
मृत पत्थर गिरते हैं बड़ी ऊँचाइयों से
जहाँ स्वप्न डरते हैं, स्वप्न होने से।
मेरी एक और दुनिया है
जहाँ सब कुछ
हवाओं में लटका है
स्वयं मैं भी ।
फिर एक और दुनिया है
जहाँ तुम हो, मेरे पिता हैं
जहाँ मैं महफ़ूज़ रहता हूँ
एक दिन पिता ने कहा था
कि मेरी दो आँखें हैं-
एक तुम, दूसरी तुम्हारी भगिनी
उस दिन
मैं पिता के कंधे तक
बड़ा हो गया था ।
और तुम भी
सागर उर्मियों-सी पिता के
माथे को छूने लगी थी।
हमारे मन में
पिता के अनेक संस्मरण हैं
और तुम उन संस्मरणों में मंदाकिनी-सी।
कभी-कभार
तुम पिता होती हो
और मैं तुम्हारी छाँव में खरगोश।
हे ईश्वर ! मेरी इस दुनिया को महफ़ूज़ रखना ।
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3. सड़क
कनॉट प्लेस की एक सड़क है
जो तुम तक आती है
जंतर-मंतर की एक सड़क है
जो तुम तक आती है
काशी, कश्मीर, काँचीपुरम की सड़कें
तुम तक आती हैं
माना, छितकुल, गर्तांग, नीलांग
ऐसी बहुत-सी सड़कें हैं
जो तुम तक आती हैं
किंतु एक पगडंडी है,
जिस पर किसी ने निगाह तक नहीं डाली है
उसे तुमने स्नेह से बुहारा है।
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4. गीत
घर से चला था घर ढूँढने को
ताउम्र गुजरी घर ढूँढने को।
ताउम्र गुजरी घर ढूँढने को।
चला फिर, गिरा, उठा फिर, चला
मगर घर मिला क्या घर ढूँढने को।
कई ख़्वाब देखे अँधेरे-उँजाले
जिन्हें देखकर मन परेशाँ हुआ है।
कई रात अपनी ही परछाइयों ने
कभी हाथ पकड़ा, कभी हाथ छोड़ा।
नहीं ठौर अपना, न यहाँ कोई ठहरा
किधर तू चला है, किसे ढूँढने को ।
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5. रंग
(१)
दुनिया में
कई रंग हैं
रंगों के भीतर
कई रंग हैं
तुम्हारा रंग
कुछ भी हो सकता है
किंतु गोरा नहीं
गोरा कोई रंग नहीं होता।
(२)
दुनिया
ब्लैक कैनवास पर
खींची गई रंगीन रेखा है।
(३)
हम रंग हैं
रंगहीन होकर
रंग भरना चाहते हैं।
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सुशील द्विवेदी
डॉ.सुशील द्विवेदी का जन्म 3 अगस्त 1995 में उत्तर प्रदेश के कौशांबी में हुआ। कवि, आलोचक और संपादक के साथ-साथ भारतीय संस्कृत में इनकी गहरी रुचि है। समय-समय पर यह हिंदी की कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की भूमिका, ब्लर्ब और समीक्षाएं लिखते रहे हैं। विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों से रचनात्मक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी रही है। 2017 से 'हस्तांक' अर्धवार्षिक पत्रिका का संपादन शुरू किया। 'हस्तांक' के 'त्रिलोचन शास्त्री' और 'मध्यकालीन कविता' विशेषांक विशेष चर्चित रहे। 'अनभैं साँचा' के अतिथि संपादक (2020) के रूप में भी कार्य किया। शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार के फेलो भी रह चुके हैं। 'सर्जक की साधना', 'कथालोचन: समय की फ़ाँस', 'डायरी का पीला वरक', संस्कृत का समाजशास्त्र, आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्ष 2023 में 'डायरी के पीला वरक' संग्रह के लिए इन्हें साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार' के लिए नामांकित किया गया है।
ईमेल-susheel.vats21@gmail.com
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