बुधवार, 19 मार्च 2025

एकता वर्मा

 1. नमक


जिनके लिए कहा गया था
मज़दूरी पसीना सूखने से पहले मिल जानी चाहिए,
समंदर उनके पसीने से बने हैं।

घर की रसोई में
उसी समंदर का
डब्बा बंद नमक रखा है।

सभ्यताओं के आरंभ में
निर्वासित समंदरों की यह सांद्र खेप
संस्कृति की रोटी पर
चुटकियों से बुरककर खायी जा रही है
अपने-अपने स्वादानुसार।
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2. सारकेगुड़ा


बुधिया महुवा की छाल पर गीली मिट्टी लेस रही है।
उसमें गोलियों के कई सूराख हैं।

वह ऐसा इसलिए नहीं कर रही कि उसके घर के दो जने;
उसका पति और बेटा
छाती और कनपटी में हुए ऐसे ही सूराख से मारे गए हैं

वह ऐसा कर रही है क्योंकि
उस अकेले पेड़ ने
उसके घर की तीन पीढ़ियों को पाला था
और अब उसकी बारी थी।
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 3. लोहा


शहर के स्त्री रोग विभाग के बाहर
औरतों की लंबी क़तार है।

डॉक्टर खून जाँचती है,
देती है सबको
-आयरन की गोलियाँ।

समझ से परे है,
शहर भर की इन औरतों के खून का लोहा
आख़िर कहाँ चला गया?
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 4. रोटियाँ


रोटियों की स्मृतियों में आँच की कहानियाँ गमकती हैं।

अम्मा बताती हैं,
सेसौरी के ईंधन पर चिपचिपाई सी फूलती हैं रोटियाँ
सौंफ़ला पर सिंकी रोटियाँ धुँवाई; पकती हैं चटक-चटक
नीम के ईंधन पर कसैली सी, करुवाती हैं रोटियाँ
पर, अरहर की जलावन पर पकती हैं भीतर-बाहर बराबर।

अम्मा का मानना है, शहर रोटियों के स्वाद नहीं जानते
स्टोव की रोटियों में महकती है किरोसिन की भाप
और ग़ैस पर तो पकती हैं, कचाती, बेस्वाद, बेकाम रोटियाँ।

रोटियों की इन सोंधाती क़िस्सागोई के बीचों-बीच
मेरे सीने पर धक्क से गिरता है एक सवाल
सवाल कि –
गाजा की रोटी कैसी महकती होगी?

गाजा की रोटी कैसी महकती होगी,
जिसे सेंक रही हैं बुर्कानशीं औरतें ध्वस्त इमारत के बीचों-बीच
उन्हीं इमारतों का फ़र्नीचर जलाकर।

क्या गाज़ा की रोटियों में महकता होगा खून
अजवाइन की तरह बीच-बीच में
कि राशन के कैंप में,
रक्तरंजित लाशों बीच से खींचकर लायी जाती हैं आँटे की बोरियाँ

क्या किसी कौर में किसक जाती होगी कोई चिरपरिचित ‘आह’
कि चूल्हे के ठीक नीचे, मलबे की तलहटी में
दफ़्न हो गए उस परिवार के सात लोग एक ही साथ

इन रोटियों को निगलते हुए गले में अटकता होगा
उन किताबों का अलिफ़,
गृहस्थी की सबसे व्यर्थ सामग्री की तरह
जिन्हें सुहूर की दाल बनाने में चूल्हे में झोंक दिया गया

क्या गाज़ा की रोटियाँ
कचाती सी,
तालु में चिपकती होंगी
कि पूरा देश जल जाने बावजूद
दुनिया देखती है फ़िलिस्तीन की तरफ़, अब भी बहुत ठंडी, सूखी आँखों से।
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 5. मृत्यु के चरण


रात के 2:30 बजे हैं।
आसमान के कोने आगज़नी की रौशनी में लपक रहे हैं।

अल-अक्शा अस्पताल के शीशों पर
खून से उठी भाप
जमा होकर धीरे-धीरे टपक रही है।

एक बहुत छोटी बच्ची है,
जिसके रूई जैसे गाल, लपट से छूकर
रूई की तरह ही झुलसकर ग़ायब हो गये हैं।
भीतर के जबड़े झांक रहे हैं,
उनमें अभी पूरे दांत नहीं उगे हैं।
ज़रूर वह बोलती होगी, तब तुतलाती होगी।
अभी मर्मांतक कराह में काँप रही है।

डॉक्टर अब उसका इलाज नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उसका मरना तय है।
लेकिन सिर्फ़ मरना उसकी नियति नहीं है
उसको पीड़ा के अनंत नरकों से गुज़रकर, फिर मरना है।

अस्पताल में मॉर्फ़िन नहीं है
या जो है भी, उसे मरते हुए आदमी पर खर्च नहीं किया जा सकता।
किंतु, यह नियति भी उसका अंत नहीं है!

उसको मरने में जितना समय लगेगा
उस समय के लिए उसको रखने की कोई जगह शेष नहीं बची है
न घर, न पड़ोस, न जबलिया, न फ़िलिस्तीन, न दुनिया, कब्र में भी अभी नहीं।

इसलिए
लाल, हरे, सफ़ेद, काले रंग के चीथड़ों में लिपटी
वह रूई से गालों वाली, तोतली बोली वाली सद्यःअनाथ बच्ची
मरने तक के लिए इमरजेंसी वार्ड के फ़र्श पर रख दी गई है।
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 6. समाज उन्हें मर्दाना कहता है।


जो राजाओं के युद्ध से लौटने का इंतज़ार नहीं करतीं
उनके पीछे जौहर नहीं करतीं,
बल्कि निकलती हैं संतान को पीठ पर बांधकर,
तलवार खींचकर रणभूमि में

समाज उन्हें मर्दाना कहता है!

जो थाली में छोड़ी गई जूठन से संतोष नहीं धरतीं
जो अपनी हथेलियों से दरेरकर तोड़ देती हैं भूख के जबड़े
जो खाती हैं घर के मर्दों से ड्यौढ़ी खुराक
और पीती हैं लोटा भर पानी

समाज उन्हें मर्दाना कहता है।

जिनके व्यक्तित्व में स्त्रियोचित व्यवहार की बड़ी कमी होती है
जिनकी चाल में सिखाई गई सौम्यता नहीं है,
स्त्रीत्व नहीं, बल्कि गुरुत्व के अनुकूल
जो धमककर चलती हैं, टाँगे खोलकर; पसरकर बैठती हैं

जिनके खून की गर्मी सारे षड्यंत्रों के बावजूद शेष है

समाज उन्हें मर्दाना कहता है।

जो गरज सकती हैं, क्रोध में बरस सकती हैं
आशंकाओं से निश्चिंत
जो अपनी जंघाओं पर ताव देकर खुले आम चुनौती दे सकती हैं
भरी सभा मूछे ऐंठ सकती हैं
मूछदार बेटियाँ जन सकती हैं

समाज उन्हें मर्दाना ही कहता है।

वे, मर्दानगी के खूँटे में बंधी सत्ता को
उसके नुकीले सींघों से पकड़कर दुहती हैं

घर की इकलौती कमाऊ लड़कियों से लेकर
प्रदेश की मुख्यमंत्री
अथवा देश की प्रधानमंत्री तक
वे सभी औरतें, जो नायिकाओं की तरह सापेक्षता में नहीं,
अपितु एक नायक की भाँति जीती हैं केंद्रीय भूमिकाओं में।

यह समाज, यह देश मर्दाना ही कहता है।

इसलिए प्राची, तुम्हें जब यही समाज
मर्दाना कहे,
तो तुम गर्व से मुस्कुराना।
तुम अपनी कॉपी में स्त्रीत्व को बहुत सुंदर, नए ढंग से लिख रही हो।
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एकता वर्मा


 







एकता वर्मा, जन्म: 24 अप्रैल 1996
हरदोई, उत्तर प्रदेश से। वर्तमान में CWDS (Centre for Women Development Studies) में 'चाँद' पत्रिका पर शोधरत। दिल्ली विश्वविद्यालय से ‘विश्व साहित्य की अवधारणा और ‘वर्ल्ड लिटरेचर टुडे’ पत्रिका में प्रकाशित हिन्दी साहित्य का मूल्यांकन’ विषय पर शोध कार्य। सामाजिक एवं राजनैतिक मुद्दों में विशेष रुचि एवं उन पर लिखीं रिपोर्ट ‘न्यूज़क्लिक’, ‘मीडिया विजिल’ आदि में प्रकाशित। अंतरराष्ट्रीय पत्रिका TMYS review के ‘आदिवासी विशेषांक’ जून 23 अंक में अनूदित कविताएँ प्रकाशित। कई पत्रिकाओं में शोध-आलेखों का प्रकाशन। ‘रमा मेहता स्मृति लेखन पुरस्कार 2024’ से सम्मानित। नई धारा, नई आवाज़ें 2024 से सम्मानित। 
संपर्क : ektadrc@gmail.com एवं everma.edu@gmail.com








बुधवार, 12 मार्च 2025

अनुजीत इक़बाल

1. नया राग


आखिर एक दिन वह क्षण भी आएगा
जब तुम, समय की देहरी पर खड़े
स्वयं को निहारोगे और
स्वयं का ही अभिवादन करोगे

संध्या के अस्त होते आलोक में
जब आकाश गोधूली रंगों से भर जाएगा 
और दूर मंदिर की घंटियाँ 
किसी भूले-बिसरे स्वर को जाग्रत करेंगी
तुम खुद को कहोगे, “आओ, विश्राम करो अब, बहुत हुआ...”

राग यमन की मधुरता में डूबा क्षितिज
धीमे-धीमे तुम्हें अपनी बाँहों में समेटने लगेगा
सप्तक के मध्यम सुर पर थिरकते सरोद और सितार की ध्वनियाँ
तुम्हारे मन के रिक्त कोनों को भरने लगेंगी

तुम अपनी उस विलुप्त छवि को आलिंगन दोगे
जो अनवरत तुम्हारे साथ चली
पर तुमने उसे कभी अपना नहीं माना
तुम उसके हाथ में धरोगे वह सारा प्रेम
जिसे तुम लोगों को अर्पित करते-करते
स्वयं रिक्त हो गए थे...
और वह छवि प्रतीक्षा करती रही
राग अहीर भैरव की तरह
जो भोर में फिर से स्वर पा सके…

अब, वह राग फिर से लौटेगा
राग संधिप्रकाश, जिसे केवल संध्या जानती है

फिर तुम अपने हृदय से झरने दोगे
वह समस्त विषाद, वे अवसन्न स्वर
वे विफल स्वप्न
जो आजीवन शोकगीत बने रहे
और तब, झंकार उठेगी
रात्रि के गंभीर आकाश में, राग मालकौंस की

रुद्रवीणा की कंपन भरी ध्वनि
जब रात्रि के प्रथम प्रहर में घुल जाएगी
और पखावज की थाप गूंजेगी
तब तुम अपनी ही धुन में खो जाओगे

और स्वयं का मंगल गान करते हुए  
रचोगे एक नया राग
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2. कामना


युगों से अभिशप्त 
मेरे स्वछंद हृदय की कामना
विस्थापित हो सूर्य हुई
जिसकी ऊष्मा से
मेरे समस्त दुश्चरित्र स्वप्नों के बीज
अंतहीन विस्तार पा गए
और तुम्हारे मौन प्रेम के जल से
रक्त पुष्प प्रस्फुटित हुए

मेरे बोधिसत्व प्रेम
तुम आना अपने स्फुट उत्कर्ष में
मेरे ऊर्जा केंद्र जाग्रत करने

मैं चाहती हूँ तुम अपने ईश्वर को नकार दो
और मेरे उन्माद को विक्षिप्तता में बदल दो
जैसे प्रकृति अनगढ़ मौन में
निर्माण को विध्वंस में बदल देती है
और फिर आता है
परम स्थैर्य

तुम्हारे हाथ के कंपन 
मेरी अबूझ, अदेह भाषा समझते हैं
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3. वचन


हे प्रियतम
तुम्हारा अघोर रूप
किसी सर्प की भांति
मेरे हृदयक्षेत्र में
कुंडली मार बैठ गया है
और मैं वैराग्य धारण करने के पश्चात
प्रेमविह्वल हो रही हूँ 

गेरुए वस्त्र त्याग कर
कौमुदी की साड़ी ओढ़ कर
तृष्णा के ज्वर से तप्त
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे समक्ष
चंद्र की नथनी डाल कर


तुम्हारी समस्त इंद्रियाँ 
हिमखंड की भांति स्थिरप्रज्ञ हैं
लेकिन दुस्साहस देखो मेरा
तुमसे अंकमाल होते हुए 
प्रक्षालन करना चाहती हूँ 
तुम्हारी सघन जटाओं का

मोक्ष के लिए 
मुझे किसी साधना की आवश्यकता नहीं
समस्त कलाओं का रसास्वादन करते हुए
मेरी कलाई पर पड़ा
तुम्हारे हाथ की पकड़ का नील
काफी होगा
मुझे मुक्ति दिलाने के लिए

वचन देती हूँ 
वो दिन अवश्य आएगा
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4. पैंडोरा बॉक्स 


मन की अतल गहराइयों में
एक बक्सा पड़ा है
बंद, जर्जर, धूल से ढका
पर भीतर…
आवाज़ें गूंजती हैं

सपनों के छिन्न अवशेष
कुछ रक्तरंजित यथार्थ 
कुछ घाव, जो स्पर्श मात्र से
रिसने लगते हैं 

यह बक्सा खुलते ही
हवाओं में घुल जाएगा
विष का पुराना स्वाद
रातें फिर से डरावनी हो जाएंगी 

फिर भी
कब तक सिसकियों को 
चुप रहने का आदेश दिया जाए 
कब तक तड़प को शब्दों से वंचित रखा जाए
कब तक मौन के आवरण में
घावों को सड़ने दिया जाए

आज नहीं तो कल
इस पैंडोरा के बक्से को खोलना ही होगा

और फिर समय
एक निर्दयी वैद्य की भाँति
किसी दिन संधान करके 
विष की गाँठ खोल देगा

और हम...
अग्निस्नान करके 
निर्बंध, मुक्त, निर्वसन
पुनः जन्मेंगे
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5. मायोसोटिस के फूल 


आकाश पर धूम्र-पुष्प दिखने लगे हैं 
बिखर रहे हैं जो हर जगह अव्यवस्थित 
और एक तीव्र तड़प
एक असीम विक्षोभ भरा है 
जिसे बरस कर रिक्त होना है

पहाड़ की एकाकी धूसर पाल के पीछे 
छिप गया है सूरज 
जो कर गया है खत्म दिन को
अपने सुनहरी वज्र के साथ

और अब मुझे दिखती है 
आकाश में उल्टी बहती हुई एक नदी

हरियाली रहित खड़ी चट्टानों
और सूखे अरण्यों का
उत्कट एकाकीपन है मुझ में 
उपेक्षा और अमर्ष से उन्मत्त
देवताओं से श्रापित हूँ मैं

विनम्रता से स्वीकार करने दो कि 
मायोसोटिस के रहस्यमय नीले फूल की
पीली अबाबील जैसी आँखें 
याद दिलाती हैं तुम्हारी 
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6. प्रेम


हे महायोगी
जैसे बारिश की बूंदें
बादलों का वस्त्र चीरकर
पृथ्वी का स्पर्श करती हैं
वैसे ही, मैं निर्वसन होकर
अपना कलंकित अंतःकरण
तुमसे स्पर्श करवाना चाहती हूँ 

तुम्हारा तीव्र प्रेम, हर लेता है
मेरा हर चीर और आवरण
अंततः बना देता है मुझे
“दिगंबर”

थमा देना चाहती हूँ अपनी
जवाकुसुम से अलंकृत कलाई 
तुम्हारे कठोर हाथों में
और दिखाना चाहती हूँ तुमको
हिमालय के उच्च शिखरों पर
प्रणयाकुल चातक का “रुदन”

मैं विरहिणी
एक दुष्कर लक्ष्य साधने को
प्रकटी हूँ इन शैलखण्डों पर
और प्रेम में करना चाहती हूँ 
“प्रचंडतम पाप”
बन कर “धूमावती” 
करूंगी तुम्हारे “समाधिस्थ स्वरूप” पर 
तीक्ष्ण प्रहार 
और होगी मेरी क्षुधा शांत


हे महायोगी, मेरा उन्मुक्त प्रेम
नशे में चूर रहता है


धूमावती- दस महाविद्याओं में पार्वती का एक रूप, जिसने भूख लगने पर महादेव का भक्षण किया था।
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अनुजीत इक़बाल















अनुजीत इकबाल हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखती रही हैं। अनुजीत जी लखनऊ में पुस्तक मेला द्वारा आयोजित राष्ट्रीय स्तर की हिंदी और कविता लेखन और अंग्रेजी कविता लेखन प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान एवं सम्मान अर्जित कर चुकी हैं। अंग्रेजी कविता के लिए इन्हें कोलंबिया से 'Antonio Machado National Universal Award' और 'Ruben Dario Award' भी प्राप्त है। विभिन्न संस्थाओं द्वारा पेंटिंग,लेखन, योग के लिए 150 से अधिक सम्मान पत्र प्राप्त।'हिंदवी','स्त्री दर्पण','गृह शोभा' दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के 'स्त्रवंति', भारतीय भाषा परिषद की 'वागार्थ', 'गर्भनाल' पत्रिका, 'शुभ तारिका','जानकीपुल','पोषमपा', 'विभोम स्वर','नवभारत टाइम्स','हम हिंदुस्तानी अमेरिका', 'हिंदी अब्रॉड' कनाड','साहित्य कुंज'आदि देश-विदेश सहित कई पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं।

बुधवार, 5 मार्च 2025

सुशील द्विवेदी

1.  शोर 


शोर 
सन्नाटे के विरूद्ध की गई 
क्रांति है मेरे दोस्त
तुम्हें यह क्रांति करनी होगी।
 
तुम्हारे साथ खड़े होंगे- 
ऊँचे पर्वतों को चीरती हुई हवाएँ
धरती में धँसता हुआ जलप्रपात
नदियाँ भागेंगी शोर करते हुए
सागर भी शोर मचाएंगे। 

शेर दहाड़ेंगे, हाथी चिंघाड़ेंगे 
कुत्ते भौंकेंगे, और गीदड़ भी हुआँ- हुआँ करेंगे। 
कोई चिक-चिक करेगा, कोई चीं -चीं
कोई हिन्-हिन्, कोई सीं-सीं

कोई रेंगेगा, कोई उछलेगा, कोई दौड़ेगा
कोई फुदकेगा, कोई आकाश तक उड़ेगा

लेकिन वह शोर करेगा, 
वह ज़िंदा रहेगा, तुम्हारे साथ रहेगा। 
जो कायर होगा, 
मौन रहेगा, मारा जाएगा। 
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2. दुनिया


मेरी एक दुनिया है
धूल है, शुष्क हवाएँ हैं
जहाँ कभी-कभार 
मृत पत्थर गिरते हैं बड़ी ऊँचाइयों से
जहाँ स्वप्न डरते हैं, स्वप्न होने से। 

मेरी एक और दुनिया है
जहाँ सब कुछ 
हवाओं में लटका है
स्वयं मैं भी । 

फिर एक और दुनिया है
जहाँ तुम हो, मेरे पिता हैं
जहाँ मैं महफ़ूज़ रहता हूँ

एक दिन पिता ने कहा था
कि मेरी दो आँखें हैं- 
एक तुम, दूसरी तुम्हारी भगिनी

उस दिन 
मैं पिता के कंधे तक 
बड़ा हो गया था । 
और तुम भी
सागर उर्मियों-सी पिता के
 माथे को छूने लगी थी।
 
हमारे मन में
पिता के अनेक संस्मरण हैं
और तुम उन संस्मरणों में मंदाकिनी-सी। 

कभी-कभार 
तुम पिता होती हो
और मैं तुम्हारी छाँव में खरगोश। 

हे ईश्वर ! मेरी इस दुनिया को महफ़ूज़ रखना । 
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3. सड़क


कनॉट प्लेस की एक सड़क है
जो तुम तक आती है
जंतर-मंतर की एक सड़क है
जो तुम तक आती है
काशी, कश्मीर, काँचीपुरम की सड़कें
तुम तक आती हैं
माना, छितकुल, गर्तांग, नीलांग
ऐसी बहुत-सी सड़कें हैं 
जो तुम तक आती हैं
किंतु एक पगडंडी है, 
जिस पर किसी ने निगाह तक नहीं डाली है
उसे तुमने स्नेह से बुहारा है।

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4. गीत


घर से चला था घर ढूँढने को
ताउम्र गुजरी घर ढूँढने को। 

चला फिर, गिरा, उठा फिर, चला 
मगर घर मिला क्या घर ढूँढने को।
 
कई ख़्वाब देखे अँधेरे-उँजाले
जिन्हें देखकर मन परेशाँ हुआ है। 

कई रात अपनी ही परछाइयों ने
कभी हाथ पकड़ा, कभी हाथ छोड़ा।
 
नहीं ठौर अपना, न यहाँ कोई ठहरा 
किधर तू चला है, किसे ढूँढने को । 

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5. रंग


(१)

दुनिया में 
कई रंग हैं
रंगों के भीतर 
कई रंग हैं
तुम्हारा रंग 
कुछ भी हो सकता है
किंतु गोरा नहीं
गोरा कोई रंग नहीं होता। 

 
(२)

दुनिया
ब्लैक कैनवास पर 
खींची गई रंगीन रेखा है। 

(३)

हम रंग हैं
रंगहीन होकर
रंग भरना चाहते हैं।

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सुशील द्विवेदी















डॉ.सुशील द्विवेदी का जन्म 3 अगस्त 1995 में उत्तर प्रदेश के कौशांबी में हुआ। कवि, आलोचक और संपादक के साथ-साथ भारतीय संस्कृत में इनकी गहरी रुचि है। समय-समय पर यह हिंदी की कई महत्वपूर्ण पुस्तकों की भूमिका, ब्लर्ब और समीक्षाएं लिखते रहे हैं। विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों से रचनात्मक कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी रही है। 2017 से 'हस्तांक' अर्धवार्षिक पत्रिका का संपादन शुरू किया। 'हस्तांक' के 'त्रिलोचन शास्त्री' और 'मध्यकालीन कविता' विशेषांक विशेष चर्चित रहे। 'अनभैं साँचा' के अतिथि संपादक (2020) के रूप में भी कार्य किया। शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार के फेलो भी रह चुके हैं। 'सर्जक की साधना', 'कथालोचन: समय की फ़ाँस', 'डायरी का पीला वरक', संस्कृत का समाजशास्त्र, आदि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्ष 2023 में 'डायरी के पीला वरक' संग्रह के लिए इन्हें साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार' के लिए नामांकित किया गया है। 
ईमेल-susheel.vats21@gmail.com

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