1. नमक
जिनके लिए कहा गया था
मज़दूरी पसीना सूखने से पहले मिल जानी चाहिए,
समंदर उनके पसीने से बने हैं।
घर की रसोई में
उसी समंदर का
डब्बा बंद नमक रखा है।
सभ्यताओं के आरंभ में
निर्वासित समंदरों की यह सांद्र खेप
संस्कृति की रोटी पर
चुटकियों से बुरककर खायी जा रही है
अपने-अपने स्वादानुसार।
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2. सारकेगुड़ा
बुधिया महुवा की छाल पर गीली मिट्टी लेस रही है।
उसमें गोलियों के कई सूराख हैं।
वह ऐसा इसलिए नहीं कर रही कि उसके घर के दो जने;
उसका पति और बेटा
छाती और कनपटी में हुए ऐसे ही सूराख से मारे गए हैं
वह ऐसा कर रही है क्योंकि
उस अकेले पेड़ ने
उसके घर की तीन पीढ़ियों को पाला था
और अब उसकी बारी थी।
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3. लोहा
शहर के स्त्री रोग विभाग के बाहर
औरतों की लंबी क़तार है।
डॉक्टर खून जाँचती है,
देती है सबको
-आयरन की गोलियाँ।
समझ से परे है,
शहर भर की इन औरतों के खून का लोहा
आख़िर कहाँ चला गया?
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4. रोटियाँ
रोटियों की स्मृतियों में आँच की कहानियाँ गमकती हैं।
अम्मा बताती हैं,
सेसौरी के ईंधन पर चिपचिपाई सी फूलती हैं रोटियाँ
सौंफ़ला पर सिंकी रोटियाँ धुँवाई; पकती हैं चटक-चटक
नीम के ईंधन पर कसैली सी, करुवाती हैं रोटियाँ
पर, अरहर की जलावन पर पकती हैं भीतर-बाहर बराबर।
अम्मा का मानना है, शहर रोटियों के स्वाद नहीं जानते
स्टोव की रोटियों में महकती है किरोसिन की भाप
और ग़ैस पर तो पकती हैं, कचाती, बेस्वाद, बेकाम रोटियाँ।
रोटियों की इन सोंधाती क़िस्सागोई के बीचों-बीच
मेरे सीने पर धक्क से गिरता है एक सवाल
सवाल कि –
गाजा की रोटी कैसी महकती होगी?
गाजा की रोटी कैसी महकती होगी,
जिसे सेंक रही हैं बुर्कानशीं औरतें ध्वस्त इमारत के बीचों-बीच
उन्हीं इमारतों का फ़र्नीचर जलाकर।
क्या गाज़ा की रोटियों में महकता होगा खून
अजवाइन की तरह बीच-बीच में
कि राशन के कैंप में,
रक्तरंजित लाशों बीच से खींचकर लायी जाती हैं आँटे की बोरियाँ
क्या किसी कौर में किसक जाती होगी कोई चिरपरिचित ‘आह’
कि चूल्हे के ठीक नीचे, मलबे की तलहटी में
दफ़्न हो गए उस परिवार के सात लोग एक ही साथ
इन रोटियों को निगलते हुए गले में अटकता होगा
उन किताबों का अलिफ़,
गृहस्थी की सबसे व्यर्थ सामग्री की तरह
जिन्हें सुहूर की दाल बनाने में चूल्हे में झोंक दिया गया
क्या गाज़ा की रोटियाँ
कचाती सी,
तालु में चिपकती होंगी
कि पूरा देश जल जाने बावजूद
दुनिया देखती है फ़िलिस्तीन की तरफ़, अब भी बहुत ठंडी, सूखी आँखों से।
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5. मृत्यु के चरण
रात के 2:30 बजे हैं।
आसमान के कोने आगज़नी की रौशनी में लपक रहे हैं।
अल-अक्शा अस्पताल के शीशों पर
खून से उठी भाप
जमा होकर धीरे-धीरे टपक रही है।
एक बहुत छोटी बच्ची है,
जिसके रूई जैसे गाल, लपट से छूकर
रूई की तरह ही झुलसकर ग़ायब हो गये हैं।
भीतर के जबड़े झांक रहे हैं,
उनमें अभी पूरे दांत नहीं उगे हैं।
ज़रूर वह बोलती होगी, तब तुतलाती होगी।
अभी मर्मांतक कराह में काँप रही है।
डॉक्टर अब उसका इलाज नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उसका मरना तय है।
लेकिन सिर्फ़ मरना उसकी नियति नहीं है
उसको पीड़ा के अनंत नरकों से गुज़रकर, फिर मरना है।
अस्पताल में मॉर्फ़िन नहीं है
या जो है भी, उसे मरते हुए आदमी पर खर्च नहीं किया जा सकता।
किंतु, यह नियति भी उसका अंत नहीं है!
उसको मरने में जितना समय लगेगा
उस समय के लिए उसको रखने की कोई जगह शेष नहीं बची है
न घर, न पड़ोस, न जबलिया, न फ़िलिस्तीन, न दुनिया, कब्र में भी अभी नहीं।
इसलिए
लाल, हरे, सफ़ेद, काले रंग के चीथड़ों में लिपटी
वह रूई से गालों वाली, तोतली बोली वाली सद्यःअनाथ बच्ची
मरने तक के लिए इमरजेंसी वार्ड के फ़र्श पर रख दी गई है।
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6. समाज उन्हें मर्दाना कहता है।
जो राजाओं के युद्ध से लौटने का इंतज़ार नहीं करतीं
उनके पीछे जौहर नहीं करतीं,
बल्कि निकलती हैं संतान को पीठ पर बांधकर,
तलवार खींचकर रणभूमि में
समाज उन्हें मर्दाना कहता है!
जो थाली में छोड़ी गई जूठन से संतोष नहीं धरतीं
जो अपनी हथेलियों से दरेरकर तोड़ देती हैं भूख के जबड़े
जो खाती हैं घर के मर्दों से ड्यौढ़ी खुराक
और पीती हैं लोटा भर पानी
समाज उन्हें मर्दाना कहता है।
जिनके व्यक्तित्व में स्त्रियोचित व्यवहार की बड़ी कमी होती है
जिनकी चाल में सिखाई गई सौम्यता नहीं है,
स्त्रीत्व नहीं, बल्कि गुरुत्व के अनुकूल
जो धमककर चलती हैं, टाँगे खोलकर; पसरकर बैठती हैं
जिनके खून की गर्मी सारे षड्यंत्रों के बावजूद शेष है
समाज उन्हें मर्दाना कहता है।
जो गरज सकती हैं, क्रोध में बरस सकती हैं
आशंकाओं से निश्चिंत
जो अपनी जंघाओं पर ताव देकर खुले आम चुनौती दे सकती हैं
भरी सभा मूछे ऐंठ सकती हैं
मूछदार बेटियाँ जन सकती हैं
समाज उन्हें मर्दाना ही कहता है।
वे, मर्दानगी के खूँटे में बंधी सत्ता को
उसके नुकीले सींघों से पकड़कर दुहती हैं
घर की इकलौती कमाऊ लड़कियों से लेकर
प्रदेश की मुख्यमंत्री
अथवा देश की प्रधानमंत्री तक
वे सभी औरतें, जो नायिकाओं की तरह सापेक्षता में नहीं,
अपितु एक नायक की भाँति जीती हैं केंद्रीय भूमिकाओं में।
यह समाज, यह देश मर्दाना ही कहता है।
इसलिए प्राची, तुम्हें जब यही समाज
मर्दाना कहे,
तो तुम गर्व से मुस्कुराना।
तुम अपनी कॉपी में स्त्रीत्व को बहुत सुंदर, नए ढंग से लिख रही हो।
एकता वर्मा, जन्म: 24 अप्रैल 1996
हरदोई, उत्तर प्रदेश से। वर्तमान में CWDS (Centre for Women Development Studies) में 'चाँद' पत्रिका पर शोधरत। दिल्ली विश्वविद्यालय से ‘विश्व साहित्य की अवधारणा और ‘वर्ल्ड लिटरेचर टुडे’ पत्रिका में प्रकाशित हिन्दी साहित्य का मूल्यांकन’ विषय पर शोध कार्य। सामाजिक एवं राजनैतिक मुद्दों में विशेष रुचि एवं उन पर लिखीं रिपोर्ट ‘न्यूज़क्लिक’, ‘मीडिया विजिल’ आदि में प्रकाशित। अंतरराष्ट्रीय पत्रिका TMYS review के ‘आदिवासी विशेषांक’ जून 23 अंक में अनूदित कविताएँ प्रकाशित। कई पत्रिकाओं में शोध-आलेखों का प्रकाशन। ‘रमा मेहता स्मृति लेखन पुरस्कार 2024’ से सम्मानित। नई धारा, नई आवाज़ें 2024 से सम्मानित।
संपर्क : ektadrc@gmail.com एवं everma.edu@gmail.com