1. मैंने सपना देखा
मैंने सपना देखा -
इस शताब्दी के अंत के साथ
बच्चे फिर से
निकल आए हैं बाहर
खुले मैदानों में
दौड़ते हुए
फलांगते हुए
उन कँटीले तारों को
जिनमें उन्हें लाकर
बंद कर दिया था
हमारी व्यवस्था की साज़िशों ने
जिसमें वो
खिड़की खोलना भूल गए,
भूल गए
हर आत्मीय स्पर्श
बस सोचते रहे
पीठ पर बोझा लादे
और माथे की सलवटों में गुम होते
चले गए।
मैंने सपना देखा -
बच्चों ने खिड़की खोलकर
आसमान देखा
और झटक दी
अपने ऊपर आ पड़ी
असमय ही झुर्रियाँ उम्र की।
वो हँस रहे थे
अपनी ही हँसी
वो खेल रहे थे
अपना ही बचपन
और वो ढूँढ रहे थे
अपने ही खेल... मिट्टी के ढेर में से।
मैंने सपना देखा -
फूलों की छतरी के नीचे
रिश्ते आ बैठे हैं
एक-दूसरे को छूते
एक-दूसरे को पहचानते।
आओ -
हम और तुम
इस खुशनुमा सपने की खाद डालकर
एक पौधा रोप दें
आस्था का
जो कभी तो दरख़्त बनेगा
जो -
छाया करेगा
हमारे बच्चों पर
जब... वो
मूल्यहीनता की जलती धूप में
भटककर लौटेंगे
एक दिन।
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2. बहता वक्त, थमते कदम
वह भी एक वक़्त था
जब -
नदी और मेरे बीच
कुछ नहीं था
पेड़ और मेरे बीच
कुछ नहीं था
मौसम और मेरे बीच भी
कुछ नहीं था।
अब -
हमारे बीच
कुछ ज़िम्मेदारी है
कुछ दुनियादारी है
कुछ समझदारी है।
आज -
दिखती है नदी
और
उखड़ने लगते हैं पैर
धरती पर से
भरोसे की फिसलती रेत
चुभने लगती है
पोर-पोर में
और
दिखने लगता है पेड़
कहीं हरा भरा
जीवन से लदा-फदा
पर
निशब्द... झरने लगती हूँ मैं
किसी पीले पत्ते-सी
उड़ने लगते हैं रिश्ते
धूल से
और आँखों में भर जाते हैं।
एकाएक
उतर आता है मौसम... भीतर।
मौसम में बहती नदी
अमलतास का
काँपता पेड़
पर मैं
दौड़ते वक़्त को पहचानती हूँ आज
मुट्ठियों में भरे ढेरों सवालों को
अनदेखा करती
देखती हूँ वक़्त को
और
धीरे-धीरे
दुनियादार हो जाती हूँ।
एक सिलसिला है
खुद के होने
और खोते जाने के बोध का
जो बार-बार
मुझे
नदी पेड़ और मौसम से
निकालकर
समझदार बनाता है।
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3. रात भर
रात भर -
भीतर नदी उफ़नती रही
पेड़ों से अँधेरा झरता रहा
सूरज -
उगने की बाट जोहता
सागर के पीछे
ऊँघता रहा।
चौखट -
किसी प्रतीक्षा में
खुली रही
सन्नाटा रह-रहकर
खिड़की पर बजता रहा।
रात भर -
हवा में सरसराता रहा
अकेलापन
कोई संबंध
बड़ी ख़ामोशी से
बारिश की बूँदों में
टपकता रहा।
रात भर -
नींद की चाह में
खुली रही आँख
कोशिश करती रही
देखना वही सपना -
जो एक बार फिर
सपना हो गया।
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4. यात्रा हूँ एक
मैं -
नाम नहीं
अपने को उद्घोषित करता
कोई पता भी नहीं
होने को स्थापित करता
मैं -
यात्रा हूँ एक
अपने से अपने तक पहुँचने की
इस तीर्थयात्रा में
शंखनाद की तरह
तमाम दुखों को
सुखों में बदलती
गूँज उठती हूँ मैं
मैं -
जब होती हूँ
अपने पास
एक सत्य की तरह
तब
सूरज की साक्षी में
किसी पुण्य में
बदल जाती हूँ।
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उषा कांता चतुर्वेदी गद्य और पद्य दोनों विधाओं में लेखन करती हैं। उनकी कहानी, कविता और समीक्षाएँ समय-समय पर हिंदी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। उनकी दो कहानियाँ राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत हैं। लेखिका संघ द्वारा प्रकाशित कविता और कहानी संकलनों और दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े कवियों के संग्रह पुनर्सम्भवा में उनकी रचनाएँ संकलित हैं। लंबे समय तक वे आकाशवाणी से संबद्ध रही और शिवाजी कॉलेज से एसोसिएट प्रोफ़ेसर के पद से सेवानिवृत्त हुईं। वर्तमान में वे दिल्ली में निवास करती हैं।
ईमेल - uk.mithilesh@gmail.com