गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

उषा कांता चतुर्वेदी

1. मैंने सपना देखा


मैंने सपना देखा -
इस शताब्दी के अंत के साथ 
बच्चे फिर से 
निकल आए हैं बाहर 
खुले मैदानों में 
दौड़ते हुए
फलांगते हुए 
उन कँटीले तारों को 
जिनमें उन्हें लाकर 
बंद कर दिया था 
हमारी व्यवस्था की साज़िशों ने 
जिसमें वो 
खिड़की खोलना भूल गए,
भूल गए 
हर आत्मीय स्पर्श 
बस सोचते रहे 
पीठ पर बोझा लादे 
और माथे की सलवटों में गुम होते 
चले गए।

मैंने सपना देखा -
बच्चों ने खिड़की खोलकर 
आसमान देखा 
और झटक दी 
अपने ऊपर आ पड़ी 
असमय ही झुर्रियाँ उम्र की। 
वो हँस रहे थे 
अपनी ही हँसी 
वो खेल रहे थे 
अपना ही बचपन 
और वो ढूँढ रहे थे 
अपने ही खेल... मिट्टी के ढेर में से।

मैंने सपना देखा - 
फूलों की छतरी के नीचे 
रिश्ते आ बैठे हैं 
एक-दूसरे को छूते 
एक-दूसरे को पहचानते। 

आओ -
हम और तुम 
इस खुशनुमा सपने की खाद डालकर 
एक पौधा रोप दें 
आस्था का 
जो कभी तो दरख़्त बनेगा 
जो -
छाया करेगा 
हमारे बच्चों पर 
जब... वो 
मूल्यहीनता की जलती धूप  में 
भटककर लौटेंगे 
एक दिन।
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2. बहता वक्त, थमते कदम


वह भी एक वक़्त था 
जब -
नदी और मेरे बीच 
कुछ नहीं था 
पेड़ और मेरे बीच 
कुछ नहीं था 
मौसम और मेरे बीच भी 
कुछ नहीं था।
अब - 
हमारे बीच 
कुछ ज़िम्मेदारी है 
कुछ दुनियादारी है 
कुछ समझदारी है। 

आज -
दिखती है नदी 
और 
उखड़ने लगते हैं पैर  
धरती पर से 
भरोसे की फिसलती रेत 
चुभने लगती है 
पोर-पोर में 
और 
दिखने लगता है पेड़ 
कहीं हरा भरा 
जीवन से लदा-फदा 
पर 
निशब्द... झरने लगती हूँ मैं 
किसी पीले पत्ते-सी 
उड़ने लगते हैं रिश्ते 
धूल से 
और आँखों में भर जाते हैं। 
एकाएक 
उतर आता है मौसम... भीतर।
मौसम में बहती नदी 
अमलतास का 
काँपता पेड़ 
पर मैं 
दौड़ते वक़्त को पहचानती हूँ आज  
मुट्ठियों में भरे ढेरों सवालों को 
अनदेखा करती 
देखती हूँ वक़्त को 
और 
धीरे-धीरे 
दुनियादार हो जाती हूँ। 
एक सिलसिला है 
खुद के होने 
और खोते जाने के बोध का 
जो बार-बार 
मुझे 
नदी पेड़ और मौसम से 
निकालकर 
समझदार बनाता है।
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3. रात भर


रात भर - 
भीतर नदी उफ़नती रही 
पेड़ों से अँधेरा झरता रहा 
सूरज - 
उगने की बाट जोहता
सागर के पीछे 
ऊँघता रहा।

चौखट -
किसी प्रतीक्षा में 
खुली रही 
सन्नाटा रह-रहकर 
खिड़की पर बजता रहा। 

रात भर -
हवा में सरसराता रहा 
अकेलापन
कोई संबंध 
बड़ी ख़ामोशी से 
बारिश की बूँदों में 
टपकता रहा। 

रात भर -
नींद की चाह में 
खुली रही आँख 
कोशिश करती रही 
देखना वही सपना -
जो एक बार फिर
सपना हो गया।
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4. यात्रा हूँ एक 


मैं -
नाम नहीं 
अपने को उद्घोषित करता 
कोई पता भी नहीं 
होने को स्थापित करता 

मैं -
यात्रा हूँ एक 
अपने से अपने तक पहुँचने की 
इस तीर्थयात्रा में 
शंखनाद की तरह 
तमाम दुखों को 
सुखों में बदलती 
गूँज उठती हूँ मैं 

मैं -
जब होती हूँ 
अपने पास 
एक सत्य की तरह 
तब 
सूरज की साक्षी में 
किसी पुण्य में
बदल जाती हूँ।
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उषा कांता चतुर्वेदी गद्य और पद्य दोनों विधाओं में लेखन करती हैं। उनकी कहानी, कविता और समीक्षाएँ समय-समय पर हिंदी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। उनकी दो कहानियाँ राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत हैं। लेखिका संघ द्वारा प्रकाशित कविता और कहानी संकलनों और दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े कवियों के संग्रह पुनर्सम्भवा में उनकी रचनाएँ संकलित हैं। लंबे समय तक वे आकाशवाणी से संबद्ध रही और शिवाजी कॉलेज से एसोसिएट प्रोफ़ेसर के पद से सेवानिवृत्त हुईं। वर्तमान में वे दिल्ली में निवास करती हैं।
ईमेल - uk.mithilesh@gmail.com

बुधवार, 18 दिसंबर 2024

विजय राही

1. उसका घर


वह कोई अनुपम नहीं होगा
और न ही बिलकुल अलहदा
लेकिन मेरी कल्पना में वह ऐसा ही था

कभी वह हरी-भरी घाटियों बीच 
नज़र आता मुझे
कभी एक झरने के ठीक बगल में
चौड़ी चट्टान पर खड़ा होकर
बाँहें फैलाकर पुकारता 

कभी किसी गाँव के कोने में 
संकोच के साथ दिखता मुझे
कभी शहर के आस-पास
जैसे उसे गाँव आया ही नहीं हो रास

कभी मैं उदास होता 
उदासी के प्रतिरूप में खड़ा करता उसे
एक बियाबान में अकेले तपते हुए
किसी रेगिस्तानी पेड़ की तरह

यह मेरे प्रिय कवि का घर था
जहाँ मैं कभी नहीं गया
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2. बहन


एक घंटे में लहसुन छीलती है
फिर भी छिलके रह जाते हैं
दो घंटे में बर्तन माँजती है
फिर भी गंदे रह जाते हैं 
तीन घंटे में रोटी बनाती है
फिर भी जली, कच्ची-पक्की

कुएँ से पानी लाती है 
मटकी फोड़ आती है
जब भी ससुराल आती है
हर बार दूसरी ढाणी का
रास्ता पकड़ लेती है 

औरतें छेडती हैं तो चुप हो जाती है
ठसक से नहीं रहती बेमतलब हँसने लगती है 
खाने-पीने की कोई कमी नहीं है
फिर भी रोती रहती है
"काँई लखण कोनी थारी बहण में"

यह सब 
बहन की सास ने कहा मुझसे
चाँदी के कडूल्यों पर हाथ फेरते हुए
जब पिछली बार बहन से मिलने गया 

मैंने घर आकर माँ से कहा
बहन पागल हो गई है
सास ने उसको ज़िंदा ही मार दिया
कुएँ में पटक दिया तुमने उसे 

माँ ने कहा 
लूगड़ी के पल्ले से आँखें पोंछते हुए
"तू या बात कोई और सू मत कह दीज्यो
म्हारी बेटी खूब मौज में है!"
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3. बारिश


जैसे हमको गाड़ी दूर से दिख जाती है
माँ को दूर से दिख जाती है बारिश 
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4. बिछड़ना 


जीवन में जो भी शख़्स मिला मुझे
मिला कम और बिछड़ा बहुत

सबसे पहले अपने पिता से बिछड़ा
जब मैं दूसरी क्लास में था
अगले साल चौथी के लिए कह रखा था उन्होंने 
उनको लगता था मैं पढ़ने में तेज़ हूँ
परंतु ऐसा कभी नहीं हो पाया 

फिर मेरे जीवन में प्रेम आया
लेकिन वह भी आता कम,
जाता अधिक दिखा 
 
बिछड़ने के ग़म का 
इतना ख़ौफ़ है मेरे मन में कि 
मैं चाहकर भी बच्चे का स्कूल नहीं बदल पा रहा हूँ

मुझे लगता है उसके दोस्त बिछड़ जाएँगे 
जो मैं कभी नहीं चाहता 
क्योंकि उन्हें देखकर मुझे अपने दोस्तों की याद आती है
और रुलाई अधिक आती है।
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5. याद


सौंफ कट चुकी है
मगर उसकी ख़ुशबू नहीं
डंठलों में भी उतनी ही ख़ुशबू है
जो अभी कुछ दिन और रहेगी हवाओं में

तुम्हारे चले जाने पर भी
तुम्हारी याद की ही तरह
यह तपेगी
जलेगी
ढह पड़ेगी
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6. झाड़ू


पक्षियों के पास होती है पंख की झाड़ू
पशुओं के पास होती है पूँछ की झाड़ू
आसमानों की झाड़ू है बादल
और धरती की झाड़ू है आँधियाँ

कुदरत के पास कितनी ही 
दृश्य और अदृश्य झाड़ू है
काश मेरे पास भी होती कोई ऐसी झाड़ू 
जिससे बुहार पाता अपनी आत्मा को
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 विजय राही















विजय राही का जन्म 3 फरवरी 1990 दौसा राजस्थान में हुआ । इनकी स्नातक शिक्षा राजकीय महाविद्यालय दौसा तथा स्नातकोत्तर की शिक्षा राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से हुई। हंस,पाखी, तद्भव, वर्तमान साहित्य, मधुमती, विश्वगाथा, कथारंग, सदानीरा, किस्सा कोताह, साहित्य बीकानेर, दैनिक भास्कर, समालोचन, कविता कोश जैसी कई पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग और वेब पटलों पर इनकी कविताएँ और ग़ज़लें प्रकाशित हो चुकी हैं। रज़ा फाउंडेशन द्वारा आयोजित कार्यक्रम 'आज कविता' शृंखला के लिए इंडिया इंटरनेशनल सेंटर तथा राजस्थान साहित्य अकादमी में इनकी कविताओं का पाठ हुआ। दूरदर्शन राजस्थान एवं आकाशवाणी, जयपुर केंद्र से इनकी कविताओं का प्रसारण हुआ। वर्तमान समय में विजय जी राजकीय महाविद्यालय कानोता में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं।
संपर्क - 9929475744
ईमेल - vjbilona532@gmail.com

बुधवार, 11 दिसंबर 2024

मीता पंत

 1. घास 


नहीं है ख़ास 
घास ही तो है घास
गाहे-बगाहे 
अनचाहे 
उगी-फ़ैली-जमी-उखड़ी-कुचली-रौंदी-दली
फिर भी बली। 

बरसात की हरियायी सौंधी धूप में 
चमचम चमकती 
रौशनी जैसी दमकती 
मखमली 
फैली-फली।

घास 
धरती के भीतर भी 
बाहर भी 
जमी, जड़ पकड़ती
सूखती 
फिर-फिर निखरती
क्या जिजीविषा 
कौन-सा अमरत्व लेकर 
अपने लिए 
कंक्रीट की दरारों में भी रच लेती घर!

ढेर से कीड़े मकोड़े 
गिलहरियाँ -तितलियाँ 
चौपाये, दोपाये सभी हम 
फैली हुई इस हरीतिमा के 
बिना जाने ऋणी हैं
पर कोई नहीं आता बचाने घास को 
ग्रीष्म के जलते शरों से।

कौन सहलाता है 
कुचले हुए तिनके?
कौन कहता है कि ठहरो 
फैलने दो 
झूमने दो घास को 
ढीठ पर 
नन्हा-सा सर 
अपना उठा लेती है
मौक़ा 
जहाँ जब भी पा लेती है।

एक नीले धुले अकाश के नीचे 
हरी चमकीली धरती 
क्या नहीं संदेश ये हम को मिले उस प्रेम का!
क्या नहीं संदेशवाहक 
हरेक ये मामूली तिनका घास का।
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2. युद्ध


वह भी एक सिपाही है 
तुम भी एक सिपाही हो 
वो भी मरने आया है 
तुम भी मारे जाओगे।

देश बचेगा
और बचेंगी वही रंजिशें – वही अदावत 
वही हुक्मराँ – वही सियासत
सरहद के इस पार भी 
सरहद के उस पार भी। 

नारे खूब लगेंगे बेशक 
माला फूल चढ़ेंगे बेशक 
दिए जलाए जाएँगे 
सर भी लोग झुकाएँ
गे

फिर कुछ दिन में भूल-भाल 
सब अपने घर को जाएँगे
कहीं कोई एक घर सिसकेगा
गीली आँखों कोई आँगन 
गए हुओं की राह तकेगा
सरहद के इस पार भी 
सरहद के उस पार भी। 
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3. विश्वास


पेड़ की फुनगी पे बैठी 
एक चिड़िया जानती है 
पेड़ ने थामा हुआ है 
एक पूरा आसमान।

मैं न मानूँ, तुम न मानो 
एक चिड़िया मानती है 
एक पूरा आसमाँ 
एक पेड़ के कंधों पे है।
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 4. मामूली औरतें 


मामूली औरतों के पास हैं ग़ैर मामूली टोटके
अपच-सर्दी-खाँसी-झड़ते बालों से लेकर 
चाय, कॉफ़ी के दाग छुड़ाने 
मूली के पत्तों का सुस्वादु साग बनाने तक के। 

कमरे की दराज़ें पहचानतीं हैं उनकी ऊँगलियों का स्पर्श 
फर्श उनके पैरों की चाप से धड़कता है 
छतें उन्ही के कंधों पर टिकी हैं 
अपने आप में एक पूरा घर हैं ये मामूली औरतें। 

एक दिन कुछ यूँ होगा 
कि सारी मामूली औरतें निकल आएँगी घरों, चौहद्दों से बाहर 
और तोड़ डालेंगी तमाम आड़ी-तिरछी दीवारें। 

वे समतल कर देंगी ऊबड़-खाबड़ ज़मीनें 
बंजर धरती पर बनाएँगी मेड़ों वाली क्यारियाँ 
और रोप देंगी उनमें गेंदे, गुलदुपहरिया, गेहूँ और गुलाब  
वे साफ़ कर देंगी नालियाँ, बुहार देंगी सड़कें,
धो डालेंगी रगड़-रगड़कर ख़ून सनी सीढ़ियाँ 
और ओनों-कोनों में रख देंगी महकते लोबान 
जहाँ-जहाँ वे पैर रखेंगी सिमटती जाएगी बेतरतीबी 
आँगन में साफ़ धुली साड़ी की तरह लहराएगी धूप 
उम्मीद के धान में से चुन लेंगी वे सारे कंकड़  
हाथ का सब काम निपटा 
किसी बहती नदी के मुहाने बैठ 
धूप भरे पानी के छींटें मार एक दूसरे पर, खुल कर हँसेगी   
उस दिन उन्हें घर लौटने
की कोई हड़बड़ी नहीं रहेगी।
_____________________________________

  

5. कवि


जिन के हृदय प्रेम से लबालब थे 
वे ऐसी दुनिया को प्रेम करने का दावा करते थे 
जिसमें नहीं बचा था कुछ भी प्रेम के लायक़  
जिनके हृदय घृणा से भरे थे 
उन्होंने अपने विष से फूँक डाला 
जहाँ भी जरा सा कुछ बचा था प्रेम करने लायक़ 
जो भरपूर प्रेम नहीं कर पाए
न ही कर सके भरपूर घृणा 
ऊबते-डूबते रहे प्रेम-अप्रेम के मध्य 
उनके हृदय में बची रही वेदना 
कविता बची रही उन 
ही के पास 
_____________________________________

6. एक और मैं


मेरे अंदर 
एक और मैं हूँ
तुम जिसे देखते हो 
वो भी मैं हूँ, 
और मैं जिसे जानती हूँ 
वो भी

एक आवाज़ है,
जिसे तुम सुन पाते हो
और एक आवाज़ 
बस मुझे ही सुनाई देती है।
मैं तुम्हें नहीं सुना सकती
तुम डर जाओगे।

वो चिड़ियों की तरह,
झरनों की तरह,
पत्तों की सरसराहट की तरह,
गा सकती है कहीं भी,
कभी भी 

एक चेहरा है 
जो तुम्हें दिखता है,
उम्र और थकान के निशानों के साथ।

और एक चेहरा
केवल मुझे दिखता है 
सुंदर, शफ्फाक़, पुरनूर
एक सूरज जैसा चेहरा
तुम देख मत लेना
आँखें दुख जाएँगी

एक हँसी है 
जो तुम सुनते हो,
और बहुत-सी बातें हैं 
जो तुम करते हो मुझ से
पर एक ख़ामोशी है 
जिसे सुनती हूँ केवल मैं
करती हूँ अक्सर उस से बातें
तुम उसे सुनकर क्या करोगे?
समझोगे ही नहीं

ज़िंदगी जीने के लिए 
मैं जानती हूँ 
मुझे हमेशा वही रहना पड़ेगा 
जिसे तुम - 
देख, सुन, छू, समझ सको
वो 'एक और मैं'
मेरे अकेले के हिस्से आई है।
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 मीता पंत





           




मीता पंत का जन्म 1974 में उत्तराखंड के कुमाऊँ अंचल में हुआ। इन्होंने कुमायूं विश्वविद्यालय से बीए और एमए (अँग्रेज़ी) की उपाधि प्राप्त की। इनके दो कविता संग्रह 'झरता हुआ मौन' और 'उजालों का लिबास' नाम से प्रकाशित हुए हैं। इनकी कविताएँ समय-समय पर विभिन्न साहित्यिक पटलों पर प्रकाशित होती रही हैं।

बुधवार, 4 दिसंबर 2024

अर्पिता राठौर

 1. लड़कियाँ 


कवि के पहले ड्राफ़्ट की भाँति
मान ली जाती हैं
लड़कियाँ
वे लिखी जाती हैं
मरोड़कर
फेंक देने के लिए।
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2. गेंदा 

 
तुमने कभी गेंदे का फूल देखा है?
देखा है कि कैसे खिलता है
थोड़ा-थोड़ा…
एक दिन में नहीं लाकर रख देता है
अपने हफ़्तों के किए हुए श्रम को
मेहनत के एक-एक कण को
उभारता है
धीरे-धीरे
इस बीच
गर तुम्हारे सब्र का बाँध टूट जाए
तो घूम आना कुछ देर
गुड़हल के पास
वह ज़्यादा इंतज़ार नहीं कराता।
जब तक तुम उसे
खिलता-मुरझाता देख आओगे
तब तक गेंदे का ये फूल
इंतज़ार करता रहेगा तुम्हारा
और यूँ ही खिलता रहेगा।
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3. मुझे कविता नहीं आती


वह तो बस कई दफ़े
रोटी सेंकते
नज़र अटक जाती है
दहकते तवे की ओर
और हाथ
छू जाता है उससे
तब उफ़न पड़ती है
कविता।
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4. मैंने अपने जीवन के


मैंने अपने जीवन के 
सबसे उदास क्षणों पर
कविता तब लिखी
जब उस उदासी को लेकर
मैं सबसे ज़्यादा तटस्थ थी।
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5. पिता का 49वाँ जन्मदिन


उम्र के साथ उनके चेहरे पर लटकी मुस्कान को
मैंने उनकी उम्र से आधी होते हुए देखा।
माथे की शिकन
जिसने कभी बैठना नहीं सीखा था
वह पिता की उम्र से
दुगुनी हो चुकी है।
रिटायरमेंट तक पहुँचने से पहले ही
पिता मना चुके होंगे
अपनी शिकन की
डायमंड जुबली।
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अर्पिता राठौर 


अर्पिता जी दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. कर चुकी हैं। इन्हें डिजिटल चित्रकारी का शौक है। इनकी रचनाएँ कविता कोश, हिंदवी, सदानीरा जैसे डिजिटल पटलों पर प्रकाशित हैं। आलोचना, बनास जन, मधुमती जैसी पत्रिकाओं में समय-समय पर इनके लेख प्रकाशित होते रहे हैं। 
ईमेल - arpirathor@gmail.com

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