बुधवार, 24 जुलाई 2024

अमित तिवारी

क्रांति

वह चला था 

क्रांति की मशाल लेकर

बुझते-बुझते

सिर्फ़ गर्म राख बची है

जिसमें वह आलू भुन रहा है

मशाल और आग से ज़्यादा

अब उसे आलू की चिंता है

राख से छिटक कर उड़ते

क्रांति के आख़िरी वारिस  

देख पा रहे हैं कि

भूख चेतना का सबसे वीभत्स रूप होती है |

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परिधि

सब साफ़ दिखाई देता था

शरद पूर्णिमा की अगली रात भी

ढाबे पर पकती दाल की भाप

चन्द्रमा की परिधि पर उभरी

प्रेमिका की ठुड्डी

लौट रही साइकिल

दिख जाता था 

मचान पर लटकी

लालटेन का संघर्ष भी

एक अहीर ले आया 

दही की कहतरियाँ

सबने देखा 

किसी ने नहीं देखे 

चमरौटी की लड़की के फटते कपड़े |

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गज़ा के जूते

भागते, उजड़ते गज़ा में

बिखरे पड़े हैं जूते

उद्दाम लालसाओं से बेखबर युवाओं के जूते

गुलों, नज्मों से दूर बसी लड़कियों के जूते

आदमियों, औरतों, बच्चों के जूते

बूढों, नर्सों, दर्जियों और बागियों के जूते

जो बड़े चाव से, बड़ी योजना बना कर

एक लम्बे समय के निवेश की तरह खरीदे गये

गज़ा में अब अनाथ पड़े हैं वे जूते

और इस पूरी दुनिया में कहीं नहीं हैं

ऐसे पैर

जो उनमें सही-सही अंट सकें 

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उपेक्षा

मोटी बूँद वाली वृष्टि की तरह

उलाहनाएँ पड़ती हैं मुझ पर

अनपेक्षित

मैं जड़ें पकडे झूलता रहता हूँ

और जब लगता है

कि उजाड़ जाएगा सब

जाने किस मद में दुबारा झूम जाता हूँ

में काँटे नहीं उगाऊँगा

और मरुँगा भी नहीं

उग आऊँगा सब गढ़-मठ पर

तुम्हारी उपेक्षा मेरे लिए खाद है |

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नव वर्ष

दिसंबर में बहुत दूर लगता है मार्च

और जनवरी में बहुत पास

एक ही दिन में बदल जाता है साल, महिना, मन

जैसे एक ही दिन अचानक बोल उठता है बच्चा

और थका-बझा घर बन जाता है संगीतशाला

एक ही दिन में आप आकांक्षी से प्रेमी हो जाते हैं

एक ही दिन में बहुत सारे गन्नों पर दिखने लगते हैं फूल

भारी-भरकम बस्ता लादे नया साल एक ही दिन आ पहुंचता है

और लोगों की बेबात ही हिम्मत बंध जाती है

सलेटी के सबकुछ में कहीं-कहीं से दिखने लगती है लाल-पीले की दखल

अवर्णनीय-सा कुछ बदल जाता है एक ही दिन में 

और बसंत की ठिठुरती प्रतीक्षा में

घुल जाती है आशा-मधु अचानक

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अमित तिवारी 


1 अप्रैल 1994 को जन्मे नई पीढ़ी के कवि अमित तिवारी की कविताएँ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं, ब्लॉग्स पर प्रकाशित होती रही हैं| कविताओं के साथ-साथ व्यंग्य एवं अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं| 
सम्प्रति पेशे से सॉफ्टवेयर इंजिनीयर अमित मुंबई में निवास करते हैं| 
 

बुधवार, 17 जुलाई 2024

आशीष बिहानी

मार्गदर्शन

चौड़ी सपाट सड़क को 

फटी चट्टियों में पार करते नन्हें भिखारियों के हुजूम में से

एक स्कूटर धीरे-धीरे निकलता है 

जैसे सफ़ेद फॉस्फोरस को काटता चाकू

पापा की शर्ट को अपनी नन्हीं हथेलियों से कसकर थामे

स्कूटर पर बैठी लड़की 

ऊपर को देखती है

सड़क किनारे के हरे-भरे पेड़ों के बीच

एक झुंझलाए, उलझन में डूबे वैज्ञानिक-सा

अस्त-व्यस्त शाखाओं वाला निष्पर्ण पेड़

झाँकता है अँधेरे में से उसकी इन्द्रियों में 

शहर के आकारवान स्थापत्य में  

अकेला-उजाड़-विद्रूप-खूंसट 

कहता है, "तुम कौन हो बेटे?

तुम जानती हो कि तुम्हारे शरीर में नन्हीं कोशिकाएँ 

बड़े नियंत्रित तरीक़े से विभाजित हो रहीं हैं

और विशाल अणु सूट-बूट पहन कर 

काम पर निकले हैं

तुम्हारा बिंदु-सा अस्तित्व जड़ें फैलाए हैं

पूरे शहर के तलघरों में

तुम कभी मजबूत भुजाओं, गुस्साई आँखों 

और मांसल स्तनों वाली

औरत बनोगी

शहर और तुम घूमोगे एक दूसरे के पीछे गोल-गोल

तुमने सोचा है, कितनी लोचदार होगी तुम,

पर झुकते वक़्त कहाँ रुक जाओगी?'

लड़की फटी आँखों से सुनती रही 

शहर भर के भगोड़े प्रेतों के 

रैन बसेरे की बहकी खड़खड़ाहट 


घर पहुँचने पर उसकी माँ उसके छितराए बालों में 

तेल लगाएगी 

चोटी गूंथते हुए उसकी बात सुनकर मशविरा देगी

कि वो सड़क किनारे के उज्जड वैज्ञानिकों की

झुंझलाईं-बुदबुदाईं कविताएँ न सुने

वे भागे हुए प्रेतों के जहाज हैं

सिर्फ़ सिसकियाँ-छटपटाहट-चीखपुकार 

सुनने के लिए

कुछ भी कह देते हैं 

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महाखड्ड

तम से लबालब वातावरण में

आभास हुआ 

रोशनी की उपस्थिति का

कारगार के अदृश्य कोनों में 

चमक उठी आशा


उसने इकठ्ठा किया

धैर्य और हिम्मत

जमीन पर बिखरे 

पतले बरसाती कीचड़ की भांति

अपनी कठोर हथेलियों में,

और डगमगाता हुआ

भागा

अँधेरी मृगमरीचिका की ओर 

गिर पड़ा 

नन्हीं विषाक्त अड़चनों पर से|


यों दुर्गन्ध के सिंहासन पर

कीचड़ से अभिषिक्त,

ठठाकर हँसा 

टुकड़ों में बिखरी चमक को 

समय की चौखट में जमाकर

और बड़ी जिज्ञासा से ढूंढने लगा 

अर्थ, सिद्धांत, प्यार, ख़ुशी


उधेड़ दिए समय ने 

विक्षिप्तता से रंजित जल-चित्र

तीखी नोकों वाले 

त्रिभुजों और चतुर्भुजों में,

दब गया सत्य

कमर पर हाथ रखकर 

उछली चुनौती उसकी ओर,

"उधेड़ दी है तूने

अपने पैरों तले की जमीन

सत्य की तलाश में.....

अब बुन इसे पुनः

या गिर जा

विक्षिप्तता के महाखड्ड में|"

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 कानून

दुनिया के लोगों के हाथ बड़े लम्बे होते हैं

वे दरअसल हवा के मुख्य संघटक हैं

चारों ओर गीली जीभों की भांति

लपलपाया करते हैं

राहें उनके भय से मुड़ जातीं हैं

गुमनाम अँधेरी बस्तियों की ओर

और उतर जातीं हैं

गहरे कुओं में

जिनके पेंदों में हवाएँ चलना बंद कर देतीं हैं

स्तब्ध धूसर दीवारों के बीच वे तुम्हें घूरतीं हैं

और तुम उन्हें

डूबने के इंतज़ार में 

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बदलना 

लोग कहते हैं कि 

दुनिया बदल रही है

आगे बढ़ रही है

क्रमिक विकास के नतीज़तन 

पर ये सच नहीं है

क्योंकि हम आज भी गिरते हैं

उन्हीं खड्डों में

जो खोदे थे हमने 

लाखों साल पहले 

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यज्ञ

सड़क किनारे एक बहरूपिया 

इत्मीनान से सिगरेट सुलगाये

झाँक रहा है 

अपनी कठौती में


चन्द्रमा की पीली पड़ी हुई परछाई

जल की लपटों के यज्ञ

में धू-धू कर जल रही है

रात के बादल धुंध के साथ मिलकर

छुपा लेते हैं तारों को

और नुकीले कोनों वाली इमारतों

से छलनी हो गया है

आसमान का मैला दामन

ठंडी हवा और भी भारी हो गयी है

निर्माण के हाहाकार से


उखाड़ दिया गया है

ईश्वरों को मानवता के केंद्र से

और अभिषेक किया जा रहा है

मर्त्यों का

विशाल भुजाओं वाले यन्त्र

विश्व का नक्शा बदल रहे हैं

  

उसके किले पर 

तैमूर लंग ने धावा बोल दिया है

उस "इत्मीनान" के नीचे 

लोहा पीटने की मशीनों की भाँति

संभावनाएँ उछल-कूद कर रही हैं

उत्पन्न कर रही हैं 

मस्तिष्क को मथ देने वाला शोर 


उसकी खोपड़ी से

चिंता और प्रलाप का मिश्रण बह चला है

और हिल रही हैं

आस्था की जड़ें


एक रंगविहीन परत के

दोनों ओर उबल रहा है 

अथाह लावा

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आशीष बिहानी   

11 मार्च 1992 को जन्मे  युवा कवि आशीष बिहानी हिंदी और मारवाड़ी दोनों भाषाओं में रचना करते हैं| देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के साथ महत्त्वपूर्ण ई पत्रिकाओं में भी इनकी कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित होते रहे हैं|

'अन्धकार के धागे' नामक एक काव्य-संग्रह 2017 में प्रकाशित हुआ है|

बीआईटी, पिलानी से अभियांत्रिकी तथा 'कोशिका एवं आण्विक जीव विज्ञान अनुसंधान संस्थान, हैदराबाद से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त कर सम्प्रति 'मॉन्ट्रियल चिकित्सकीय अनुसंधान संस्थान(कनाडा)' में शोधकार्य कर रहे हैं|

बुधवार, 10 जुलाई 2024

गौरव पाण्डेय

 गाँव से निकले बहुत लोग

१.

गाँव से निकले बहुत लोग

कुछ न कुछ करने 

और लौटे भी

जो कुछ बन पड़ा वो करके


लौटे कुछ ईंट-गारा करके

बोझा ढोकर लौटे कुछ

देर शाम तक

नमक-तेल-तरकारी लिए बहुत लौटे


कुछ ऐसे थे

जो लौटे बहुत दिनों बाद

बड़ा-सा बैग, रुपया, कपड़ा और सपने लेकर


लेकिन कुछ ऐसे भी थे

जो नहीं लौटे

खो गए


जो नहीं लौटे

उनमें अधिकतर ऐसे थे

जो कुछ हो गए

वे डॉक्टर, वे प्रोफ़ेसर, वे वकील

वे पत्रकार, वे थानेदार

ये जहाँ गए वहीं के रह गये थे


इधर जिनके लौटने की उम्मीद

खो चुका था गाँव

वे मृतकों के बीच से उठकर लौटे......


२.

ये नायक

गाँव के बेटे थे

अब दामाद की तरह लौटते थे


गाँव बीमार था

डॉक्टर इलाज करने नहीं आया

और निरक्षर गाँव ने

प्रोफेसर से एक अक्षर नहीं पाया

वकील ने गाँव को नहीं दिया कोई न्याय

और पत्रकार क्या जाने गाँव का हाल-चाल

दरोगा ने रौब दिखाया गाँव को ही


जब कभी 

दिखाया गया इन्हें कोई सम्मान 

तब ज़रूर चर्चा में रहा गाँव का नाम.........

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मैं घर को वापस घर लाना चाहता हूँ

मैं दुनिया भर की 'मॉम' को

वापस माँ के पास लाना चाहता हूँ 

चाहता हूँ 'डैड' हो चुके पिता

ऑफिस से लौट

आँगन में सेम के बीज रोपें


'सिस' हो चुकी बहन

और 'ब्रो' बन चुके भाई 

दीदी भी 'दी' हो गई हैं

यही तो रिश्ते बचे थे मेरे पास

इन रिश्तों की संवेदना के खिलाफ

षडयंत्र रचती भाषा की जड़ों में 

मैं मट्ठा बनकर उतर जाना चाहता हूँ


मकान की यात्रा करते हुए 

कमरों में पहुंचे घर को 

मैं वापस घर लाना चाहता हूँ|

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पिता इंतजार कर रहे हैं

पिता आकाश देखते हैं

और हमें हिदायत देते कब तक लौट आना है

वो हवाओं को सोखते

और तमाम परिवर्तनों को भांप लेते


पिता को बादलों पर भरोसा नहीं है

जैसे लोगों को पट्टीदारों और पड़ोसियों पर नहीं होता

फिर भी उनका मानना है

 कि हमारा कोई न कोई नाता है ही 

इसलिए जरूरी है मौसम दर मौसम एक चिट्ठी का लिखा जाना 


बादलों के रंग और रफ़्तार 

पिता खूब समझते हैं

उन्होंने बता दिया था

धान की फसल कमजोर रहेगी इस बार

हाँ, तिल और बाजरे से जरूर उम्मीद रहेगी


पिता चिंतित हैं

आम के बौर अब पहले की तरह नहीं आते 

महुआ से कहाँ फूटती है अब वह गंध 

जामुन का पुश्तैनी पेड़ अरअरा के गिर पड़ा 

और सूख गया तालाब इस बार कुछ और जल्दी


पिता प्रतिदिन पड़ रही दरारों से जूझते हैं

और लगातार कम हो रही नमी से चिंतित रहते हैं          


हम जानते हैं

पिता के मना करने के बावजूद

दर्जनों बार मोल लगा चुके हैं व्यापारी    

आँगन की नीम का

जबकि पिता इंतज़ार कर रहे हैं 

कि एक दिन हम सभी समस्याओं का हल लेकर 

लौट आएँगे शहर से

और उस दिन पुरानी शाखाओं पर 

 एक बार फिर खिल उठेंगे नए-नए पत्ते....

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सरसों के फूल और बच्चियों के सपने 

घने कोहरे के बीच

खेतों से घर लौटती है माँ

बहन पीछे-पीछे


माँ के हाथों में हैं 

सरसों के कुछ पत्ते

और बहन की अंजुली में भरे हैं

बहुत से फूल सरसों के


द्वार की नीम से

दातुन तोड़ रहे हैं पिता

पड़ोस की बच्चियाँ दौड़-दौड़ बीनती हैं 

नीम की सींकें


माँ कतरती है सरसों के पत्ते

पड़ोस की बच्चियाँ 

बहन को घेर लेती हैं

सब मिल कर सींकों में पिरोती हैं 

सरसों के फूल


पहले कुछ फूलों से बनाती हैं लहरदार झुमका

और लड़ीदार नथिया

एक बच्ची के नाक-कान में लगा कर देखती हैं

हँसती हैं खिलखिला कर

बनाती हैं फिर माँथबेंदी, पायल, कर्धनी

और एक बड़े सींकें में पिरोती हैं 

ग्यारह बड़े-बड़े फूल

और सजाती हैं एक सुंदर हार 


सबकी सहमति से 

ये हार बहन के हिस्से आता है

वह गले के नजदीक लाती है

रुक कर तलाशती हैं नजरें माँ को


बच्चियों के इस कौतुक को 

रसोई की रौशनदान से देखती है माँ

और हाथ में नमक लिए सोचती है

'सरसों के ये टूटे फूल 

कब तक हरे रख पाएँगे

बच्चियों के स्वप्न को '


दूर से आवाज आती है

पिता के कुल्ला करने की

कड़ाही में नमक डालते हुए

माँ करछुल चलाने लगती है|

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ससुराल में झूला

 वो बुआ ही थीं हमारी

पिता को राखी बाँधती

हमें ढेर सारी मिठाई खिलाती


बहनों को याद हैं

उनकी कजरी

सावनी झूलों के मोहक गीत

मजाल है भौजाइयों की

उनके रहते कोई झूला न चढ़े


झूलना उन्हें बहुत पसंद था 

हवाओं के पंखों पर सवार होने वाली बुआ

एक दिन 

पंखे से झूलती मिलीं


बच्चियां बताती हैं

ससुराली घर से बाहर आकर 

उन्होंने कुछ देर तक झूलने की जिद की थी


(आज भी आता है सावन

पड़ जाते हैं झूले 

पेड़ों से झर-झर झरते हैं बुआ के गीत)

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 गौरव पाण्डेय 


26 दिसम्बर 1991 को जन्मे युवा रचनाकार गौरव पाण्डेय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिंदी) और दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय से पी एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है| हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं ब्लॉग्स पर कविताएँ और आलेख प्रकाशित हुए हैं | दो कविता-संग्रह 'धरती भी एक चिड़िया है' तथा 'स्मृतियों के बीच घिरी है पृथ्वी' प्रकाशित हुए हैं | अंग्रेजी के अतिरिक्त बांग्ला, गुजराती, मराठी भाषाओं में इनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं| 

कवि गौरव पाण्डेय को 'स्मृतियों के बीच घिरी है पृथ्वी' के लिए वर्ष 2024 का साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार प्रदान किया गया है |

सम्प्रति गोस्वामी तुलसीदास राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कर्वी, चित्रकूट, उत्तरप्रदेश में सहायक प्राध्यापक के रूप में अध्यापनरत हैं| 


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