बुधवार, 26 जून 2024

हर्षिता पंचारिया

विषतंत्र

अपने तंत्र को मजबूत करने के लिए 

उन्होंने चुना साँपों को,

तालाब की मछलियों की संख्या

अधिक होने के बावजूद 

दानों की लड़ाई ने उन्हें इतना कमजोर बना दिया  कि

सांप के फुफकारने मात्र से मछलियाँ

तितर-बितर हो गईं,

बावजूद इसके कुछ मछलियों ने साँपों को 

अपना देवता माना|


क्योंकि साँपों ने केंचुली बदल ली थी|


अब चढावे में साँपों ने दूध माँगने की जगह

बस इतना कहा कि

केंचुली बदलने से सांप विषधर नहीं रहते|

मूर्ख मछलियाँ दानों के लालच में

सांप की प्रकृति भी भूल गईं|


काफ़ी समय से

तालाब पर अब सफ़ेद कपोत नहीं दिखते,

और अब मछलियों के अनाथ बच्चों ने साँपों को

अपना सर्वोच्च नेता मान लिया है,

जिन्होंने उन्हें भ्रम में रखा है कि

वो उन्हें विषैले तालाब से आज़ादी दिलाएँगे| 


अब मछलियाँ मरती जा रही हैं

तालाब सूखते जा रहे हैं

और साँपों का क्या है

उन्हें तो बस विष उगलना है

चाहे तालाब में या

तालाब के बाहर|

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नरभक्षी

जाते जाते उसने कहा था,

नरभक्षी जानवर हो सकते हैं

पर मनुष्य कदापि नहीं,

जानवर और मनुष्य में

चार पैर और पूंछ के सिवा

समय के साथ 

यदि कोई अंतर उपजा था

तो वह धर्म का था


फिर सभ्यता की करवटों ने धर्म को

कितने ही लबादे ओढ़ाएँ ,

पर एक के ऊपर एक लिपटे लबादों में

क्या कभी पहुँच पायी है कोई रोशनी?


धीरे धीरे अँधेरे की सीलन ने

जन्मी बू और रेंगते हुए कीड़े,

वे कीड़े जो आज भी

परजीवी बनकर जीवित हैं

मनुष्य की बुद्धि में,

जो शनै: शनै: समाप्त 

कर देंगे मनुष्य की मनुष्यता को|


जाते जाते मुझे उससे पूछना था

मनुष्यता की हत्या होने पर भी

क्या धर्म का जीवित रहना साक्ष्य है

मनुष्य के नरभक्षी नहीं होने का?

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मूर्ख

उसने कहा, तुम मूर्ख हो!

मैंने सहजता से स्वीकार कर लिया|

हाँ....मैं मूर्ख हूँ, दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ख!

मेरी स्वीकारोक्ति ने तो जैसे आग में घी डाल दिया हो|

उसने कहा, तुम जैसों का कुछ नहीं हो सकता!

मैंने कहा, वह तो और भी अच्छा होगा....

आप जैसों का समय बच जाएगा|

अब उसका क्रोध सातवें आसमान पर था|

 उसने कहा, तुम्हारे जैसे लोगों की वजह से ही

यह दुनिया नर्क हो रखी है!


मैंने संयमित होकर कहा,

ताकि आप जैसे लोग, शायद इसे स्वर्ग बना सकें....

वह धम्म धम्म करता हुआ चला गया पर....

उसकी बड़बड़ाहट में मैंने यह सुना कि,

सयाने लोग सही कहते हैं-

'मूर्खों से मुंहजोरी जी का जंजाल है!'

जबकि मैं....

उससे चिल्ला-चिल्ला कर कहना चाहती थी कि

'मूर्ख बने रहना इसलिए भी जरूरी है

ताकि बुद्धिमानी का दंभ जीवित रहे

और

जंजालों के जाल में बुद्धिमानों का वर्चस्व कायम रहे!'

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निषिद्धता

हे मृत्यु!

कितनी निष्ठुर हो गई हो तुम!


इतनी कि रुक ही नहीं रही हो

असंख्य वेदनाओं के रुदन से

अनंत प्रार्थनाओं के स्वर से

और अब,

इन हथेलियों की रेखाओं को भी नहीं पता कि

कितनी दिशाओं से आओगी तुम|


मृत्यु कहती है कि

यहाँ जीवन निषिद्ध है

पर जीवन तो कभी कह ही नहीं पाया,

कि यहाँ मृत्यु निषिद्ध है

क्योंकि 

निषिद्धता का नियम 

योद्धाओं के हिस्से नहीं वरन

शासकों के हिस्से आया|


पर यकीन  मानो,

हम सब अभ्यस्त हो रहे हैं

असमय और अकारण हो रहे युद्ध के

और हमारा अभ्यस्त होना 

इस बात का परिचायक है कि

परिवर्तन के नियम क्रम में अस्त होना निषिद्ध है

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पिता

पिता के मुस्कुराने भर से, कहाँ टालता है माँ का गुस्सा

माँ की शिकायत पत्रों की पेटी होते हैं पिता

माँ की चुप्पियों की चाबी होते है पिता

माँ जानती है कि चाबी के ना होने पर टूट जाते है ताले 

इसलिए माँ हमेशा पल्लू में बांधे रखती है 

चाबी

और संसार कहता है,

पिता

"बँधे हुए हैं माँ के पल्लू से"|


पिता के कहने भर से, कहाँ थामते हैं बच्चे हाथ

बच्चों की गहरी नींद में जागते सपने होते हैं पिता 

ऊब की परछाइयों में

हाथ थामते पिता इतना जानते हैं कि,

अवसाद कितना भी गहरा हो

उम्मीद की तरह टिमटिमाते जुगनुओं से रख देंगें, 

मुट्ठी भर रौशनी संसार की विस्तृतता को बढाते हुए

शायद इसलिए 

पिता आसमान से होते हैं |


पिता थोड़ा-थोड़ा बँट भी जाते हैं 

थोड़ा छोटे काका में, थोड़ा छोटी बुआ में

ताकि थोड़ा-थोड़ा ही सही, पर मिलता रहे 

उन्हें भी 

पिता-सा दुलार....

जाने कैसे उनके पुकारने भर से पूरी कर जाते हैं,

हज़ारों किलोमीटर की दूरियाँ घंटे मात्र में

आज भी नहीं मानते पिता

उन्हें कभी अपने बच्चों से पृथक....

ऐसा कहते रहते हैं मेरे पिता, अपने स्वर्गीय पिता से|


कम उम्र में पिता को खोने का दुख पिता ने सहा

पिता के जाने बाद वह अपनी माँ के पिता भी बन गए

बिवाई से लेकर उनकी हर दवाई का

ऊँगलियों पर हिसाब रखने वाले पिता,

जब चारों ऊंगलियों को बंद करते हुए

 सोचते हैं कि उन ऊंगलियों से बंद मुट्ठी ही

यदि मेरा भाग्य है

तो यही मेरे जीवित होने का साक्ष्य है|


पिता बनते-बनते पिता सब भूल जाते हैं

यहाँ तक वह खुद को भी भूल जाते हैं

मैं उन्हें ढूँढती हूँ

तलाशती हूँ

यहाँ वहां थोड़ा बहुत खोजती हूँ

और वह मंदिर में बैठे 'गोपाल' की तरह 

मुस्कुराते हैं,

मुझे भजन सुनाते हैं....

'ओ पालनहारे

निर्गुण और न्यारे

तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं'|

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हर्षिता पंचारिया


5 नवम्बर 1985 को जन्मी युवा लेखिका हर्षिता पंचारिया ने एमबीए की उपाधि प्राप्त की है| इनकी रचनाएँ ब्लॉग्स, डिजिटल माध्यमों पर तथा 
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं|
'व्योमांजलि' नामक एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई है|

बुधवार, 19 जून 2024

राही डूमरचीर

 सरई फूल

झरिया उराँव के लिए


दरख्तों को उनके नाम से

न पुकार पाना

अब तक की हमारी

सबसे बड़ी त्रासदी है


कहा उससे -

मुझे सखुआ का पेड़ देखना है

बुलाना चाहता हूँ उसके नाम से

सुनो! अपरिचय के बोझ से 

रिसता जा रहा हूँ थोड़ा-थोड़ा


साथ चलने का इशारा कर

सारे दरख्तों से बतियाती

उनके बीच से लहराती चली

वह गिलहरी की तरह


एक पेड़ के सामने रुक

तोड़ कर फूल उसकी डाली से 

अपने जुड़े में खोंसते हुए

पलट कर कहा मुस्कुराते हुए -

अब चाहोगे भी

तो भुला नहीं पाओगे

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पूछा गौरया ने

एक दिन पूछा गौरया ने

अनुभवी बरगद से 

प्यास ज़्यादा पुरानी है

या ज़्यादा पुराना है पानी 


जगल में फैलती 

घास की गंध की तरह

फैली इस सवाल की बेचैनी

बहुत नीचे, जहां छुपकर मिलती थीं

पानी से बरगद की जड़ें

वहां भी मच गई खलबली

गौरये का मासूम-सा यह सवाल 

फैला इतिहास के हर मोड़ तक

पर भीगा नहीं कथाओं का कोई पन्ना  

जिस कथा में मारा जाता है मासूम श्रवण कुमार 

वहां भी अनकही रह जाती है प्यास और पानी की कहानी


शाम को लौटने की बात कह कर 

निकल गई वह नदियों-पेड़ों से मिलने

इधर बरगद ने स्मृतियों में डूबते हुए सोचा -

क्या समय था वह

जब प्यास और पानी साथ-साथ चलते थे

जब जहां प्यास लगती

पानी वहां पहले से मौजूद होता पिये जाने को लालायित

इतना कि कभी-कभी नाक के रास्ते जा पहुंचता गले तक


फिर आबाद हुई दो पैरों वालों की 

सभ्यतायें पानी के किनारे 

सभ्यता के नाम पर 

इन्होंने सिर्फ़ हड़बड़ी सीखी और सब गड्डमड्ड  कर दिया

बेदर्दों ने प्यास को ज़रिया बनाया

और खड़े रहे हथियारों से लैस पानी के किनारे

अपने ही जैसे कुछ लोगों की प्यास को रखा पानी से दूर

और वहीं से उनमें कौंधा यह विचार

कि क्यों न शुरू किया जाए पानी का व्यापार 


शाम ढ़ले लौट कर जब आई गौरया

बरगद कहीं नहीं दिखा 

इधर-उधर बिखरी हुई उसकी कुछ जड़ें थीं 

जिनमें उसके बिखरे आशियाने का मंजर था

कहते हैं

उसके बाद से ही दिखनी कम हो गई गौरया भी 

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हिम्बो कुजूर 

कोड़ा कमाने गए थे 

असम के गझिन चाय बगान

शिलांग के सड़क की अठखेलियाँ

लखीमपुर के बूढ़े दरख़्त 

पहचानते हैं हिम्बो कुजूर को

चाय बागानों में छूटे रह गए गीत

तड़पते हैं उनकी मांदर की ताल को 

जाड़ा-बरसातों में घर से रहते दूर

बच्चों की पढ़ाई के लिए 

सारी कमाई भेजते रहे थे देस

बढ़ते हुए बच्चे पढ़ते रहे

नौकरी मिलते ही बड़ी बेटी ले आई उन्हें

छोटा नागपुर की याद उन्हें भी सताती थी

उनके हर गीत उनके जंगल-नदियों को ही पुकारती थीं 

अनगिनत किस्सों के साथ वापस लौटे 

गीत जो जवानी में वे छोड़ गए थे 

आकर खेलने लगे उनके मांदर पर 

भूले-बिसरे रागों ने भी भरी अंगड़ाई 

रीझ ने अपना रंग पा लिया था जैसे

मांदर को बजाते-बजाते जब

अपने पंजों पर बैठ कर उठते थे

झूम उठती थी तरंग सी अखड़ा की टोली

हिम्बो कुजूर जैसा रीझवार पूरे गुमला जिला में नहीं था


फिर एक दिन

जब घर बनाया जा रहा था 'ठीक' से 

पहाड़ किनारे वाले अपने पुश्तैनी घर में वापस लौट आए

पुराना मिटटी का बना मकान था

जिसके आँगन से पहाड़ दीखता था

पहाड़ की तरफ मुँह करके 

आँगन में जब वह मांदर पर ताल देते 

पूरा गाँव जुट जाता था दिन-भर की थकान भुला 

फिर देर रात तक चलता गीतों का सिलसिला 

पुराने-पुराने पुरखों के गीत

जीवन के रंग से लबालब गीत

अब उनका एक नाती है आठ साल का

उनके साथ अपनी नन्हीं उँगलियाँ फेरता है मांदर पर

पुरखों के किस्से सुनता है अनगिनत अपने आजा से 


पूछ बैठा एक दिन -

कितना तो सुन्दर घर बनाया है आयो ने

आपके लिए एक अलग से कमरा भी है

जैसा मेरा है

आप क्यों चले आये हमें छोड़कर यहाँ आजा

चिहुँकते हुए कहा उसने -

पता है छत से आपका पहाड़ भी दीखता है

मुस्कुराते हुए कहा हिम्बो कुजूर ने

थोड़ा बड़े हो जाओ

बढ़ जाए मांदर से दोस्ती और थोड़ी 

तब समझ पाओ फ़र्क़ शायद

आँगन से पहाड़ नहीं दीखता अब वहां

इसलिए चला आया यहाँ वापस


आज हिम्बो कुजूर को

उनके ही गाँव की नदी से बालू धोने वाली 

एक अंजान ट्रक

नई पक्की बनी सड़क पर कुचल कर चली गई 

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दुखों का मौसम नहीं है पतझड़

हाड़ाम बा कहने लगे-

तुम हमेशा अधूरी बात सुनते हो

पतझड़ को तुमने भी अपनी कविता में 

दुःख लिख दिया है


पतझड़ दुखों का मौसम नहीं है

मुरझाए हुए मन का प्रतीक तो बिलकुल नहीं

 दिन रात चलते रहने वाले 

अनवरत संगीत के इस मौसम में

अपना जीवन जी चुके पत्ते

'नयों को भेजो दुनिया देखने 

हम तुम्हारी नींव में समाते हैं' - गाते हुए 

अपनी धरती से मिलने आते हैं


पतझड़ में पेड़ 

दुःख नहीं मनाते

न ही दुःख में डूबते-गलते

डालों से टूटकर गिरते हैं पत्ते

वे तो सोहराय में नाचते-गाते

अपने लोगों से बाहा परब में मिलने आते हैं 


इसी से है 

हमारे बार-बार वापस लौटने का रिवाज

भूत नहीं बनते हमारे लोग

इस दुनिया से जाकर

वे साथ होते हैं हर मौक़े पर

हँड़िया का पहला दोना भी पुरखे ही चखते हैं


पेड़ और पत्तों की रज़ामन्दी से आता है पतझड़

वरना लू की लहक भी हरे पत्तों को कहाँ झुलसा पाती है

बढ़ती धूप के साथ और हरे होते जाते हैं पत्ते

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राही डूमरचीर

 24 अप्रैल 1986 को जन्मे नई पीढ़ी के कवि-लेखक

 राही डूमरचीर की प्रारम्भिक शिक्षा दुमका में, फिर 

शान्तिनिकेकन में, तत्पश्चात् जे.एन.यू. और हैदराबाद

 विश्वविद्यालय में हुई| सम्प्रति मुंगेर, बिहार में कॉलेज में अध्यापन करते हैं| 

प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ, आलेख एवं अनुवाद 

प्रकाशित हुए हैं| 

बुधवार, 5 जून 2024

आलोक आज़ाद

 असफलता

सबसे मुश्किल होगा

शहर से वापस 

घर, गाँव लौटना


तुम लौटोगे

सालों के रेत के बाद

बारिश की तलाश में


और तुम्हारा लौटना

ऐसे होगा

जैसे बोई गई फ़सल 

पकने के वक़्त,

बर्बाद हुई और भूख के लिए कोसी गई.

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ईश्वर के बच्चे

क्या आपने,

ईश्वर के बच्चों को देखा है?


ये अक्सर,

सीरिया और अफ्रीका के खुले मैदानों में,

धरती से क्षितिज की और,

दौड़ लगा रहे होते हैं,


ये अपनी माँ की कोख से ही मजदूर हैं,

और पिता के पहले स्पर्श से ही युद्धरत हैं,


ये किसी चमत्कार की तरह,

युद्ध में गिराए जा रहे खाने के

थैलों के पास प्रकट हो जाते हैं,

और किसी चमत्कार की तरह ही अदृश्य हो जाते हैं,


ये संसद और देवताओं के

सामूहिक मंथन से निकली हुई संतानें हैं,

जो ईश्वर के हवाले कर दी  गयी हैं,


ईश्वर की संतानों को जब भूख लगती है,

तो ये आस्था से सर उठा कर,

ऊपर आकाश में देखते हैं

और पश्चिम से आये देव-दूतों के हाथों मारे जाते हैं


ईश्वर की संतानें 

उसे बहुत प्रिय हैं

वो उनकी अस्थियों पर लोकतंत्र के

नए शिल्प रचता है

और उनके लहू से जगमगाते बाज़ारों में रंग भरता है


मैं अक्सर 

जब पश्चिम की शोख चमकती रात को 

और उसके उगते सूरज के रंग को देखता हूँ

मुझे उसका रंग इंसानी लहू सा

खालिस लाल दिखाई देता है|

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डायन और बुद्ध 

कुछ औरतें,

अपने पतियों,

और बच्चों को सोते हुए,

अकेला छोड़ चली गईं,

ऐसी औरतें,

डायन हो गईं,


कुछ पुरुष,

अपने बच्चों और बीवियों,

को सोते हुए,

अकेला छोड़ चले गए,

ऐसे पुरुष बुद्ध हो गए,


कहानियों में,

डायनों के हिस्से आए,

उल्टे पैर,

और बच्चे खा जाने वाले,

लंबे, नुकीले दांत,


और बुद्ध के,

हिस्से आया,

त्याग, प्रेम,

दया, देश,

और ईश्वर हो जाना | 

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प्रेमिकाएँ

प्रेम में पड़ा पुरुष,

हर गलती के साथ,

अपने घर लौट जाता है,


और प्रेमिकाएँ लौटती हैं,

नीच, कुलटा और अभिशापित हो कर,


प्रेम में पुरुष, 

हारता है,

और प्रेमिकाएँ, ठगी जाती हैं.

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घर से निकले लड़के

घर से निकले लड़के

शहर की संगीन रातों में

पिता की आँखों का सूरमा ढूँढते हैं 


उनके कंधे

यौवन के पहले पहर में झुक रहे हैं

और पीठ पर शासन की लाठियों के गहरे निशान हैं


ये बेहया के फूल की तरह

अपने गाँवों से निकल

शहर के वर्जित इलाकों में उग आए हैं


मजिस्ट्रेट के हालिया बयान में

उनके होने की गंध मात्र से

शहर में कर्फ्यू का खतरा है


उनके रतजगे  में माशूकाओं की आहट

धुंधली होती जा रही है

और उनकी आँखों में

बहन की महावर का रंग उतर आया है 


माँ को अच्छी साड़ी पहनाने की 

एक अदद इच्छा

सरकारी नौकरी की विज्ञप्तियाँ चर चुकी हैं

और ये एक सिगरेट और चाय की प्याली से 

जैसे-तैसे, अपनी रिक्तता को बचाए जा रहे हैं


घर से निकले लड़के

सड़क से संसद तक

सपनों की तस्करी के बाद

जबजब कुछ नहीं रह जाते


तो उदास, अकेले, खाली हाथ

अन्तात्वोगात्वा

एक दिन घर लौट जाते हैं

लेकिन घर, उन तक, फिर कभी नहीं लौटता|

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आलोक आज़ाद 

2 जुलाई 1990 को जन्मे आलोक आज़ाद पोस्ट-डॉक्टरेट शोधार्थी हैं|   

बहुमत, पोषम पा, हिन्दवी, हिन्दीनामा, साहित्कीयनामा, कविताएँ और साहित्य जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं और पोर्टल्स में कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं| इनका एक काव्य-संग्रह 'दमन के खिलाफ़'(2019) भी प्रकाशित हो चुका  है| 


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