गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

नेहा नरुका

जेबकतरे

एक ने हमारी जेब काटी और हमने दूसरे की काट ली और दूसरे ने तीसरे की और तीसरे ने चौथे की और 

चौथे ने पाँचवे की

और इस तरह पूरी दुनिया ही जेबकतरी हो गई

अब इस जेबकतरी दुनिया में जेबकतरे अपनी-अपनी जेबें बचाए घूम रहे हैं


सब सावधान हैं पर कौन किससे सावधान है पता नहीं चल रहा 

सब अच्छे हैं पर कौन किससे अच्छा है पता नहीं चल रहा 

सब जेब काट चुके हैं

पर कौन किसकी जेब काट चुका है पता नहीं चल रहा


जेबकतरे कैंची छिपाए घूम रहे हैं

संख्या में दो हजार इक्कीस कैंचियाँ हैं

इनमें से पाँच सौ एक अंदर से ही निकली हैं

अंदर वाली कैंचियाँ भी बाहर वाली कैंचियों की तरह ही दिख रही हैं

कैंचियाँ जेब काट रही हैं

सोचो जब  कैंचियाँ इतनी हैं तो जेबें कितनी होंगी?

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डर

अक्सर आधी रात को मैं डरावने ख्वाब देखती हूँ

मैं देखती हूँ मेरी सारी पोशाकें खो गई हैं

और मैं कोने में खड़ी हूँ नंगी

मैं देखती हूँ कई निगाहों के सामने खुद को घुटते हुए!


मैं देखती हूँ मेरी गाड़ी छूट रही है

और मैं बेइन्तहा भाग रही हूँ उसके पीछे!

मैं देखती हूँ मेरी सारी किताबें 

फटी पड़ीं हैं ज़मीन पर 

और उनसे निकल कर उनके लेखक

लड़ रहे हैं, चीख रहे हैं, तड़प रहे हैं

पर उन्हें कोई देख नहीं पा रहा |


मैं देखती हूँ मेरे घर की छत, सीढ़ियाँ और मेरा कमरा

खून से लथपथ पड़ा है

मैं घबराकर बाहर आती हूँ और बाहर भी मुझे आसमान से खून रिसता हुआ दिखता है 

अक्सर आधी रात को मुझे डरावने खावाब आते हैं 

और मैं सो नहीं पाती|


मैं दिनभर खुद को सुनाती हूँ हौसले के किस्से

दिल को ख़ूबसूरती से भर देने वाला मखमली संगीत 

पर जैसे-जैसे दिन ढलता है

ये हौसले पस्त पड़ते जाते हैं

और रात बढ़ते-बढ़ते डर जमा कर लेता है क़ब्जा मेरे पूरे वजूद पर

मैं बस मर ही रही होती हूँ तभी 

मेरी खिड़की से रोशनी दस्तक देती है मेरी आँखों में

और मेरा ख्वाब टूट जाता है

अक्सर..........

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बिच्छू

(हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि 'अज्ञेय' की 'सांप' कविता से प्रेरणा लेते हुए)

तुम्हें शहर नहीं गाँव प्रिय थे

इसलिए तुम सांप नहीं,

बिच्छू बने

तुम छिपे रहे मेरे घर के कोनों में 

मारते रहे निरन्तर डंक

बने रहे सालों जीवित


तुमसे मैंने सीखा:


प्रेम जिस वक्त तुम्हारी गर्दन पकड़ने की कोशिश करे

उसे उसी वक्त औंधे मुंह पटककर, अपने पैरों से कुचल दो

जैसे कुचला जाता है बिच्छू,


अगर फिर भी प्रेम जीवित बचा रहा 

तो एक दिन वह तुम्हें डंक मार-मार कर अधमरा कर देगा|

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विविधता

तुम पीपल का पेड़ हो

और मैं आम

न तुम मुझे पीपल बनने की कहना 

न मैं तुम्हें आम


एक तरफ बाग़ में तुम खड़े होगे

और एक तरफ मैं


मेरे फल तुम्हारे पत्ते चूमा करेंगे

और तुम्हारे फल मेरे पत्तों को आलिंगन में भर लेंगे


जब बारिश आएगी

हम साथ-साथ भींगेंगे


जब पतझड़ आएगा 

हमारे पत्ते साथ-साथ झरेंगे


धूप में देंगे हम राहगीरों को छाँव

अपनी शाखाओं की ओट में छिपा लेंगे हम

प्रेम करने वाले जोड़ों की आकृतियाँ


हम साथ-साथ बूढ़े होंगे

हम अपने-अपने बीज लेकर साथ-साथ मिलेंगे मिट्टी में 


हम साथ-साथ उगेंगे फिर से

मैं बाग के इस तरफ, तुम बाग के उस तरफ

न मैं तुम्हें अपने जैसा बनाऊँगी 

न तुम मुझे अपने जैसा बनाना


अगर हम एक जैसा होना भी चाहें तो यह संभव नहीं

क्योंकि इस संसार में एक जैसा कुछ भी नहीं होता

एक माता के पेट में रहने वाले दो भ्रूण भी एक जैसे कहाँ होते हैं....


फिर हम-तुम तो दो अलग-अलग वृक्ष हैं, जो अपनी-अपनी ज़मीन में गहरे तक धँसे हैं


हम किसी बालकनी के गमले में उगाये सजावटी पौधे नहीं 

जिसे तयशुदा सूरज मिला, तयशुदा पानी मिला और नापकर हवा मिली


हम आम और पीपल हैं!

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उनके कांटे मेरे गले में फँसे हुए हैं

वे सब मेरे लिए स्वादिष्ट मगर काँटेदार मछलियों की तरह हैं 

मैंने जब-जब खाना चाहा उन्हें तब-तब कांटे मेरे गले में फंस गए

उकताकर मैंने मछलियाँ खाना छोड़ दिया

जिस भोजन को जीमने का शऊर न हो उसे छोड़ देना ही अच्छा है


अब मछलियाँ पानी में तैरती हैं

मैं उन्हें दूर से देखती हूँ

दूर खड़े होकर तैरती हुई रंग-बिरंगी मछलियाँ देखना 

मछलियाँ खाने से ज़्यादा उत्तेजक अनुभव है


जीभ का पानी चाहे कितना भी ज़्यादा हो

उसमें डूबकर अधमरे होने की मूर्खता बार-बार दोहराई नहीं जा सकती|

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नेहा नरुका

जन्म:  7 दिसंबर 1987

शिक्षा: एम.ए., नेट, पीएच.डी.

रचनाएँ: फटी हथेलियाँ
'सातवाँ युवा द्वादश', 'आजकल', 'हंस', 'वागार्थ' आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित 

सम्प्रति शासकीय श्रीमंत महाराज माधवराव सिंधिया महाविद्यालय, कोलारस में सहायक प्राध्यापक, हिंदी के पद पर कार्यरत|


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