ऐसे में
ऐसे में कुछ भी निश्चित नहीं
नहीं जानता कल शाम को छे बजे
आऊँगा या नहीं
कुछ भी पक्का नहीं
भग्न है ब्रह्माण्ड का ऑकेस्ट्रा,
हर दीवार पर पड़ी है दरार
यह इतना पुराना पेड़ अंतिम दाँत-सा
बस लगा भर है पृथ्वी के मसूढ़े से
हिल रहा है सब कुछ हिल रहा है
जो अंतिम आधार थी धरती, वह भी
ऐसे में कुछ भी निश्चित नहीं
तेज धार में रोपता चल रहा हूँ पाँव
उखड़ता
डोलती धरती पर दौड़ता
खुले स्थिर मैदान की खोज में
कह नहीं सकता आऊँगा ही पक्का
कह नहीं सकता मेरा कौन-कौन है जिंदा
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सन्निपात
खुरच रहा है चारों तरफ़ से
देखने को कि देखें क्या है अन्दर
कि देखें वह नाटा आदमी
क्या सोच रहा है भीतर-भीतर
क्या पक रहा है कुम्हार के आँवे में
हालाँकि सत्ता अब निश्चिंत सो रही थी धूप में
क्योंकि लोगों के माथे में गोद दिया गया था कि
जो भिखमंगा बैठा है मंदिर की सीढ़ी पर वही है दुश्मन
जो दुकान के तलघर में बीड़ी बना रहा है वही है दुश्मन
जो बंगाल की खाड़ी में मछली मार रहा है वही है दुश्मन
फिर भी सत्ता कभी सोती नहीं
सो उसने हर तरफ़ अपने आदमी भेजे
किसी ने कहा मैं पक्ष में बयान दूँ
किसी ने कहा विपक्ष में बयान दूँ
और ये सब वही थे जो कभी न कभी
उसका पुआ खा चुके थे
या जो मुझे गिरवी रख खुद छूटना चाहते थे
और वे सब मेरा दरवाज़ा कोड़ रहे थे
और यहीं मुझे अपने को इस तरह घेरना था
जैसे तार की जाली में पौधा
मुझे कुछ भी कहने यहाँ तक कि हाँ-हूँ करने से भी डर था
अमावस में एक जुगनू भी खतरा है
एक ने तो अचानक चलते-चलते पूछ दिया
आपको कौन-सा फूल पसंद है
और बस मैं फँस ही जाता कि याद पड़ा डर है
लगातार उनकी बात पर ताली बजाता
सभी पितरों नदियों पर्वतों को गाली देता
किसी तरह साबित करता कि मैं भी वही हूँ जो वे हैं
कि मैं भी ख़ुद उनके द्वार का पाँवपोश
उनके न्यायालय के
गुम्बद का परकटा कबूतर
पर उन्हें विश्वास न था
मेरी आँख में कुछ था जो घुलता न था
और मेरी रीढ़ में थी कलफ़
और शायद रोओं से कभी-कभी फूटता था धुआँ
और सबसे अलग बात ये कि मैं अपना खाता
अपना ओढ़ता
व्यवस्था वैसे खुली थी मुक्त
पर दिमाग बंद ही शोभता है
इसलिए वे परेशान थे
इसलिए मैं लगातार घिरता जा रहा था
जैसे सूअर पकड़ते थे घेर कर
और एक दिन आख़िर में मेरे मुँह से निकल ही गया
मारना ही है तो मार दो, बहाना क्यों?
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जिस पर बीता
एक औरत पूरे शरीर से रो रही थी
एक पछाड़ थी वह
हाहाकार
उससे बड़ी औरत उसे छाती से
बाँधे हुई थी पत्थर बनी
और एक रिक्शा खींच रहा था लगातार
चुप एकटक पैडल मारता
हर घर हर दुकान को उकटेरता
पूरे शहर में घूम रहा था
हाहाकार|
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हार की जीत
नहीं, मुझे अपनी परवाह नहीं
परवाह नहीं कि हारें कि जीतें
हारते यों रहे ही हैं शुरू से
लेकिन हार कर भी माथा उठा रहा
और आत्मा जयी यवाँकुर-सी हर बार
सो, मुझे हार-जीत की परवाह नहीं
लेकिन आज ऐसा क्यों लग रहा है जैसे मैं खड़ा हूँ
और
मेरा माथा झुक रहा है
लगता है आत्मा रिस रही है तन से
रक्त फट पड़ा है
और मेरे कंधे लाश के बोझ से झुक रहे हैं
नहीं, यह बात किसी को मत बताना खड्ग सिंह
नहीं तो लोग ग़रीबों पर विश्वास करना छोड़ देंगे|
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ग़लतफ़हमी
उसने मुझे आदाब कहा और पूछा अरे, कहाँ रहे इतने रोज़
सुना आपके मामू का इंतकाल हो गया?
कौन? लगता है आपको कुछ.........
आप वो ही तो जो रमना में रहते हैं इमली के पेड़ के पीछे?
नहीं, मैं.......
अरे भई माफ़ कीजिए, बिलकुल वैसे ही दिखते हैं आप
वैसी ही शक्ल बाल वैसे ही सुफ़ेद और रंग भी........
कोई बात नहीं भई
हम तो चाहते हैं कि एक चेहरा दूसरे से
दूसरा तीसरे से मिले और फिर सब एक से लगें,
सब में सब-
और हर बार हम सही से ज़्यादा ग़लत हों|
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अरुण कमल
जन्म : १५ फ़रवरी १९५४
शिक्षा : अंग्रेजी में एम.ए., पीएच.डी.
व्यवसाय : सेवानिवृत प्राध्यापक, अंग्रेजी विभाग, पटना विश्वविद्यालय
रचनाएँ : अपनी केवल धार, सबूत, नए इलाके में, पुतली में संसार,
मैं वो शंख महाशंख, योगफल - कविता संग्रह;
कविता और समय, गोलमेज़ - आलोचना;
कथोपकथन - साक्षात्कार; अनुवाद आदि|
सम्पादन : साहित्यिक पत्रिका आलोचना का सम्पादन
पुरस्कार : भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, सोवियत भूमि पुरस्कार, रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार आदि|