बुधवार, 7 मई 2025

पल्लवी गर्ग


1. पाजेब 


एक दिन दादी का बक्सा सही करते हुए

मिल गईं उनकी छुन-छुन करती पाज़ेब
जब पूछा दादी से पहन लूँ इसे
वे बोलीं हम तो छोड़ चुके इसे पहनना
तुमको क्यों पहननी है

मैंने कहा दादी, इसकी आवाज़ तो सुनो
कितनी मधुर है
पैर में बजेगी तो सरगम सी गूँजेगी
मैं मयूरी-सी थिरकूँगी

दादी तुमने उतारा क्यों इनको?
अम्मा क्यों नहीं पहनती इनको?
मेरे सवालों पर दादी मुस्कुराईं
बोली सारा दिन छुन-छुन करती पाज़ेब
तब चुप होती थी जब हम आराम करते
पर चुप पाज़ेब किसी को न भाती
कोई न कोई आवाज़ तुरंत आ जाती
फिर करने लगती पाज़ेब छुन-छुन

मध्य रात्रि जब कभी छुन-छुन कुछ तेज़ हो जाती
बुजुर्गों के खाँसने की आवाज़ भी तेज़ हो जाती
सुबह-सवेरे ताने और कुटिल मुस्कान चेहरों पर नाचती
ऐसा लगता बिट्टो
धरती गड़ जाए
हम धंस जाएँ 
हमारी हर आहट
हमसे पहले पाज़ेब सबको देती
छुन-छुन की आवाज़ खटकने लगती

हमने जो झेला सो झेला
तुम्हारी अम्मा को न बाँधा छुन-छुन से
उसको तो काम पर बाहर भी जाना था
अपना स्वाभिमान भी बचाना था
वैसे ही स्त्री को दूर से सूंघ लेता है समाज
अपना सुरक्षा कवच खुद बनाना पड़ता है
पाज़ेब पहननी है तो पहनो
पर अपनी आहट किसको देनी है
यह तय करो फिर उसमें घुंघरू डालो

तब नहीं समझी थी उनकी बात
दादी अपनी पाज़ेब मुझे दे गईं,
जाते-जाते कह गईं,
जब मेरी बात समझ जाना तभी पहनना इनको!

कितनी आगे की सोच थी
मेरी बे-पढ़ी दादी की
घर की चार दिवारी से कितना सही आँका था उन्होंने समाज को
अब उनकी पाज़ेब अपनी पोटली से निकाल कर
देख लेती हूँ
कुछ देर पहन कर ख़ुश होती हूँ
फिर अपनी आहट को उतार पोटली में सहेज लेती हूँ। 

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2. अब मैं सागर बन रही हूँ 

समुद्र कुछ ले नहीं जाता
नहीं समेटता निष्कासित वस्तुएँ
लौटा देता हर भार
प्लास्टिक, शव, प्रतिमाएँ, कपड़े…सब
कुछ नहीं रखता
जो आत्मा पर बोझ बने

पर सहेजता है
आँसू मुस्कान
प्रेमियों की पुकार
और
इंतज़ार

सहेजता है हर बात
जो बिन बोले कोई कहे उससे
जो उसके क़रीब बैठ
तुम्हें लगाती रही 
समझा उसने आत्मा पर बोझ बने आँसुओं को
कुछ आँसू अपने आँचल से उड़ा दिए उसने
जो अब बरस रहे हैं फुहार बन
अपने मन का बोझा मैं सिरा रही हूँ
मन में विसर्जित हर घाव
लौटा रही हूँ
अब मैं सागर बन रही हूँ। 
सहेजा उसने मेरी पुकार को
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3. मेरे रंग-बिरंगे पंख 

तुम गए तो लगा, साँसे
थम जाएँगी
जीवन रुक जाएगा

तभी दिखा
तितली का बच्चा
अपना खोल तोड़
बाहर आता हुआ
पंख फैला
उड़ जाता हुआ
तुम मेरे जीवन का
एक दर्दीला खोल थे…. बस!

मुझे न,
अपने रंग-बिरंगे पंख
अत्यंत प्रिय हैं।

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4. समझ 


चाँद ने आहट दी
चाँदनी बिखेर कर
पलाश झरकर शाख़ से
उलझ गया बालों में
मत्था टेका ईश के आगे
तो रोली लग गई माथे में

हँसी भी सुनी झुमकी के घुँघरू की
काजल भी शरमा कर
आँखों की कोर में अटका रहा
होठों पर रहस्यमयी मुस्कान तैर गई
चकोर-सा चंचल रहा तन
हिरनी-सी कुलाँचें भरता रहा मन

एक टक शून्य में निहारते हुए
एक परछाईं भी दिखी
मेरी परछाईं में घुलती-मिलती

मैं बावरी
यहाँ-वहाँ
तुम्हें ढूँढती फिरती रही
और तुम रूह छूते रहे
दुनियावी समझ ज़हन में खुद रच बस जाती है
रूहानी समझ वक़्त निकलने के बाद आती है। 
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5. लापता हो जाऊँ 

चंचल थी बेबाक थी 
एक वक्त था जब मैं आज़ाद थी
पर आज मन है कि लापता हो जाऊँ मैं
थक-सी गई हूँ वजह देते-देते, 
क्यों ना आज खुद ही बेवजह-सी हो जाऊँ मैं।

ना आँखों की नमी छुपानी पड़े 
ना मुस्कुराने के लिए किसी को वजह बतानी पड़े 
ना किसी मर्यादा में खुद को बांधू मैं
ना ही कोई लक्ष्मण रेखा लाघूं मैं 
थक गई हूँ कभी खुद को, कभी औरों को समझाते-समझाते मैं 
क्यों ना आज समझ के दरवाजे बंद कर 
अंधेरे में गुम हो जाऊँ मैं
घुट रही हूँ लोगों के फिजूल प्रश्नों, दलीलों और अटकलों में
कब तक औरों की उम्मीद तले खुद की ख्वाहिशें दबाऊँ 
थक-सी गई हूँ लांछनों से दामन बचाते-बचाते
घुटनों के बल हूँ, तो करूंगी भी क्या शस्त्र उठाके 
 
एक-एक खुशी की दवा अब मांगी नहीं जाती 
क्यों ना कहीं अनंत में खो जाऊँ मैं 
कोई भी ढूंढे न मुझे अब, 
मन है बस यूं ही सहसा लापता हो जाऊँ मैं। 

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पल्लवी गर्ग 














पल्लवी गर्ग शिक्षा, साहित्य और संगीत में गहरी रुचि रखती हैं। इन्होंने कई उच्च शैक्षणिक संस्थाओं तथा प्रयागराज साधना टीवी चैनल के कार्यक्रमों का सफल संयोजन व संचालन किया। उज्जैन में 2003 के काव्य-मनीषी सम्मान से इन्हें सम्मानित किया गया है। विभिन्न डिजिटल पटल और पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं। 'मेरे शब्दों में छुपकर मुस्कुराते हो तुम' इनका प्रथम कविता-संग्रह है। 
pallavigarg1974@gmail.com

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